Book Title: Jain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Author(s): Naginashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 269
________________ और व्यवहार पर गहरा प्रभाव डालते हैं। प्रेम, भय, घृणा, आवेग आदि भाव अन्तःस्रावी स्रोतों द्वारा जनित हैं। पाइनियल-(Pineal) का स्राव ठीक न हो तो प्रतिभा का विकास नहीं होता। शरीर का संतुलन, मन, शरीर तथा प्राणों का नियंत्रण व्यवस्थित नहीं रहता। एड्रीनल-(Adrenal) ठीक काम नहीं करती तो भय, चिंता, क्रोध आदि उत्पन्न होते हैं। जीवन में अस्त-व्यस्तताएं बढ़ जाती हैं। गोनाड्स-(Gonads) यौन उत्तेजना बढ़ती है। इसके स्राव काम ग्रन्थि पर ही नहीं, शरीर के अन्यान्य अवयवों तथा उनके क्रिया-कलापों पर भी गहरा प्रभाव डालते हैं। ग्रन्थियों के स्राव बदलते हैं, उनके आधार पर अनेक प्रकार की विभिन्नताएं उत्पन्न होती हैं किन्तु ये ग्रन्थियां भी मूल कारण नहीं, मूल कारण बहुत सूक्ष्म है जिसे कर्म कहते हैं। प्रत्येक प्राणी का जीवन एक मर्यादा से घिरा हुआ है। कोई भी स्वतंत्र नहीं। इसका कारण है- बंधन। बंधन का मूलभूत कारण भीतर ही है बाहर नहीं। मनुष्य कर्म क्यों करता है ? प्रेरक तत्त्व क्या है ? इस सम्बन्ध में भी विचार मननीय है। अर्जुन ने प्रश्न उठाया- हे कृष्ण ! दुनिया में ऐसी क्या वस्तु है जिससे नहीं चाहते हुए भी मनुष्य पाप कर्म करता है ? श्रीकृष्ण ने उसे समाहित करते हुए कहा-अर्जुन ! रजोगुण से उत्पन्न काम और क्रोध ही प्रेरक कारण है। वस्तुतः काम ही एकमात्र कारण है। क्योंकि क्रोध का जनक भी काम ही है। बौद्ध दर्शन में कर्म-प्रेरक के रूप में काम, तृष्णा, इच्छा एवं राग को मान्य किया है। ये सब एकार्थक-से ही हैं। आचार्य शंकर और फ्रायड ने भी काम को ही मूल प्रेरक माना है। जैन दर्शनानुसार कर्म बीज के प्रेरक सूत्र दो हैं- राग-द्वेष। महावीर के शब्दों में-मनोज्ञ, प्रिय या अनुकूल विषय राग के निमित्त हैं। प्रतिकूल या अप्रिय द्वेष के हेतु हैं।६ राग-द्वेष के प्रत्यय वासना-तृष्णा और आसक्ति की ही आकर्षणात्मक और विकर्षणात्मक शक्तियां हैं। बौद्ध दर्शन में राग-द्वेष को भव तृष्णा और विभव तृष्णा कहा है। .२५० - जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन

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