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कर्मशास्त्र के अनुसार भी उपशमन की पद्धति लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकती। उपशमित वृत्तियां पुनः उभर कर ग्यारहवें गुणस्थान तक आरोहण करने वाले साधक को पुनः नीचे गिरा देती हैं।
क्षयोपशमन—इस प्रक्रिया में उपशम और क्षय साथ-साथ चलता है। यह मार्गान्तरीकरण की प्रक्रिया है । उदात्तीकरण भी कह सकते हैं।
क्षयीकरण — इसमें दोषों का सर्वथा विलयन हो जाता है। इससे आध्यात्मिक चेतना की भूमि प्रशस्त होती चली जाती है।
भौतिक विज्ञान में भी क्वांटम के आधार पर आन्तरिक भावों की प्रस्तुति जा रही है। डेबिट बोम के अनुसार हमारे भीतर एक सहज आनंद की स्थिति है। किन्तु चिंतन एवं इन्द्रिय संवेदन / सुख प्रबल हो जाते हैं तब वह आवृत हो जाती है। जब बाह्य चिंतन एवं सुखैषणा रूप संवेदना शांत हो जाती है तब भीतर आनंद प्रकट हो जाता है।
व्यक्ति की चेतना मनोविज्ञान के स्तर पर अनेक रूपों में कार्य करती है । जब चेतना का प्रवाह ऊर्ध्वमुखी होता है, व्यक्ति स्वतः ही विधायक भावों से पूर्ण हो जाता है। चेतना का प्रवाह अधोमुखी होता है तब निषेधात्मक चिन्तन का विकास होता है।
मस्तिष्क विज्ञान की खोज में रेटीकुलर (Retie Coolur) फॉरमेशन में भय, क्रोध, लालसा आदि निषेधात्मक भाव पैदा होते हैं तो उनका नियंत्रण भी वही करता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने रेटीकुलर फॉरमेशन की क्रिया को औदयिक व्यक्तित्व और क्षायोपशमिक व्यक्तित्व कहा है। औदयिक व्यक्तित्व के कारण क्रोधादि भाव पैदा होते हैं, क्षायोपशमिक व्यक्तित्व से उन पर नियंत्रण होता है । ३ उत्पन्न और नियंत्रण दोनों अवस्थाएं साथ में चलती हैं। यह कर्मवाद की भाषा है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण - प्राचीन शरीर - विशेषज्ञों ने शरीर के संचालक तत्त्व हृदय, स्नायु संस्थान, गुर्दा आदि को माना है किन्तु आधुनिक शरीरशास्त्र की खोजों ने प्रमाणित कर दिया कि मूल कारण इससे भी आगे हैं। वे हैं- ग्रंथियों के स्राव अर्थात हार्मोन्स । हार्मोन्स जितने शरीर और मन को प्रभावित करते हैं उतने हृदय, गुर्दा आदि नहीं। हार्मोन्स न केवल प्रत्येक शारीरिक क्रिया में भाग लेते हैं अपितु व्यक्ति की मानसिक दशाओं, स्वभाव
उपसंहार
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