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आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं - इन्द्रियों पर नियंत्रण किये बिना राग-द्वेष एवं कषाय पर विजय पाना संभव नहीं । '
प्रश्न होता है, क्या इन्द्रिय और मन का निरोध संभव है ? यदि पूर्ण निरोध संभव नहीं तो फिर इन्द्रिय-संयम की बात क्यों कही जाती है ?
उत्तर में कहा जाता है कि निरोध का अर्थ इन्द्रियों को विषय-विमुख करना नहीं। विषय-सेवन के मूल में निहित राग-द्वेष को समाप्त करना है। यह शक्य नहीं कि कान में अच्छे-बुरे शब्दों का प्रवेश ही न हो । शब्दों का नहीं, शब्दों के प्रति जो राग-द्वेष की भावना बनती है उसे रोकना है।
मनुष्य का मन पेंडुलम जैसा है। राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों में घूमता रहता है। द्वन्द्व से उपर उठना है। सभी इन्द्रियों के विषय में यही स्थिति है । गणधरवाद में उल्लेख है-जिस प्रकार देवदत्त अपने महल की खिड़कियों से बाह्य जगत को देखता है उसी प्रकार व्यक्ति इन्द्रियों के माध्यम से सुनता है । देखता है। गंध लेता है। स्वाद चखता है। स्पर्श करता है । बाह्य पदार्थों से संपर्क जुड़ता है । "
खिड़कियों को बंद नहीं किया जा सकता किन्तु आसक्त व्यक्ति राग-द्वेष के कारण बंधता है। वीतराग के लिये बंधन नहीं ।
विषय न किसी को बंधन में डालते हैं, न किसी में विकार ही पैदा करते हैं। उनमें राग-द्वेष करने वाला विकृत होता है।
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बुद्ध ने कहा- न चक्षु रूपों का बंधन है, न रूप भी चक्षु का बंधन है । किन्तु दोनों के निमित्त से जो छन्द (राग) उत्पन्न होता है वही बंधन है", क्योंकि बंधन का वास्तविक कारण इन्द्रिय व्यापार नहीं बल्कि राग-द्वेष की प्रवृत्तियां हैं। राग-द्वेष विमुक्त इन्द्रिय- व्यापार करता हुआ व्यक्ति पवित्रता की ओर गतिशील है ।
दृश्य कभी महत्त्वपूर्ण नहीं होते । महत्त्वपूर्ण है द्रष्टा की समता भावना । राग-द्वेष से कषाय पुष्ट बनती है। विकास एवं ह्रास का महत्त्वपूर्ण आधार कषाय की अल्पता एवं अधिकता है । वृहत्कल्प भाष्य में कषाय के छह प्रकार व्याख्यायित हैं
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तीव्रतम कषाय
मंद कषाय
उपशांत कषाय
मध्यम कषाय
क्षय-उपशम कषाय
क्षीण कषाय
जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन