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जहां कषाय है। वहां कर्म की नियमा है किन्तु कर्म में कषाय की अनिवार्यता नहीं है। दसवें गुणस्थान से ऊपर के चार गुणस्थानों में कर्म है कषाय नहीं। उनके कर्म भी जली हुई रस्सी के समान है जो गांठें नहीं पड़तीं।
कषाय के साथ आने वाले कर्म साम्परायिक हैं जो जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट सत्तर कोटाकोटी सागर स्थिति प्रमाण कर्मों के बंधन की योग्यता रखते हैं। क्षीण कषाय वीतराग होते हैं उनके ईर्योपथिक बंधन होता है। जो दो समय में ही समाप्त हो जाता है।
कषाय तंत्र कितना भी शक्तिशाली हो, फिर भी आत्मा में वह शक्ति है जिसका प्रयोग कर वह कषाय का विलय कर सकता है। जैन दर्शन में निगोद से लेकर मोक्ष-प्राप्ति तक की विकास यात्रा का मनोविज्ञानिक विश्लेषण है। भावों के उत्कर्ष-अपकर्ष का सांगोपांग चित्रण है। कर्म का स्वरूप, कर्म की जातियां, भेद-प्रभेद, कर्म की अवस्थाएं, कर्म का विपाक आदि अनेक पहलू हैं जिन पर विस्तृत साहित्य उपलब्ध है।
___ कर्म-बंध का सहयोगी आस्रव है। निरोधक है-संवर। कर्म के रूपान्तरण का हेतु निर्जरा है। संवर-निर्जरा आत्मा की उत्क्रांति है। संदर्भ सूची
१. जैन सिद्धांत दीपिका ४।१। २. भगवती १।११९। ३. कर्मवाद पृ. १९४ लेखक आचार्यश्री महाप्रज्ञ। ४. गीता, ३।३६। ५. वही, २०६२। ६. उत्तराध्ययन ३२।२३। ७. विशुद्धिमग्ग भाग. २ पृ. १०३।१२०। ८. योगशास्त्र ४।२४। ९./गणधर वाद। १०. उत्तराध्ययन, ३२।१०१। ११. संयुत्त निकाय ४।३५।२३२।
उपसंहार
.२५३.