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ह्यूम, जेम्स ने आत्मा को स्वतंत्र द्रव्य के रूप में मान्य नहीं किया किन्तु चेतना-प्रवाह के रूप में आत्मा के अस्तित्व की जो धारणा है वह बौद्धों के समकक्ष है।
देहात्मवाद की समस्या-स्पिनोजा का मत है कि शरीर और मन एक ही वस्तु के दो सापेक्ष पहलू हैं। देकार्त ने दोनों की निरपेक्ष सत्ता घोषित की। देकार्त का यह घोष दार्शनिक जगत में अन्तक्रियावाद के नाम से प्रसिद्ध है।
देकार्त, ग्यूलिंक्स, मेलेब्रान्स, लाइबनित्ज आदि पाश्चात्य दार्शनिकों ने अपने-अपने तरीके से समाहित करने का प्रयास किया है किन्तु निर्विवाद समाधान नहीं दे पाये।
जैन दर्शन द्वैतवादी है। उसने जीव और शरीर का भेदाभेद स्वीकार किया है। सर्वथा अभेद मानने से दोनों एक रूप होंगे और सर्वथा भेद मानने से कभी मिल ही नहीं सकते। अतः अपने विशेष गुणों से भेद तथा सामान्य गुणों के कारण अभेद हैं। यह सापेक्ष दृष्टि है।
परिवर्तनमय जीवन की व्याख्या के लिये किसी न किसी विकारी तत्त्व की उपस्थिति अनिवार्य है। आत्मा अविकारी है, कर्म विकारी। दोनों का सम्बन्ध सेतु है राग-द्वेषमय आत्मा का परिणाम। राग-द्वेष से आत्म-प्रदेश प्रकंपित होते हैं। उस स्थिति में जीव की योग शक्ति कर्म प्रायोग्य पुद्गल स्कंधों को अपनी ओर आकर्षित करती है। वे ही कर्म नाम से अभिहित हैं।
भाव कर्म भीतर की जैविक रासायनिक प्रक्रिया है। द्रव्य कर्म सूक्ष्म कर्म शरीर की रासायनिक प्रक्रियाएं हैं। दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। प्रतिपक्ष न हो तो पक्ष को समझना कठिन है।
विज्ञान भी द्रव्य के साथ प्रतिद्रव्य का अस्तित्व सिद्ध करता है। वे पदार्थ, जिनकी भविष्यवाणी सन् १९२८ में सापेक्षवादी क्वांटम सिद्धांत के द्वारा की गई थी, प्रतिपदार्थ कहलाये।
न्युटन ने कहा-जिस प्रकार क्रिया की प्रतिक्रिया होती है उसी प्रकार ध्वनि की प्रतिध्वनि, अणु-प्रतिअणु, कण-प्रतिकण, तरंग-प्रतितरंग, जैविकप्रतिजैविक, अनुसंधान के क्षेत्र में ये उजागर हो रहे हैं। प्रतिपदार्थ के बिना पदार्थ का अस्तित्व नहीं टिकता। चेतन-अचेतन में अत्यन्ताभाव है। अत्यन्ताभाव की सिद्धि तभी संभव है जब उसका कोई विरोधी पदार्थ हो।
उपसंहार -
२४७.