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उपसंहार
पिछले अध्यायों में आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म, विकासवाद, लेश्या, मृत्यु, मोक्ष और मोक्ष के उपायों की विवेचना की । उस सम्बन्ध में अन्य दार्शनिकों, विचारकों की अवधारणाओं को समझा तथा पाश्चात्य दर्शन के साथ तुलना करने का प्रयास किया गया है।
अब हमें यह देखना है कि जैन तत्त्व-मीमांसा का जीवन के संदर्भ में क्या मूल्य हो सकता है ? मानव समाज की समस्याओं का समाधान करने में कहां तक समर्थ है, और किस हद तक सक्रिय योगदान है ?
हमारे समग्र चिंतन का केन्द्र है- आत्मा । आत्मा का विश्लेषण मोक्ष की दृष्टि से किया गया है। आत्मा यदि केन्द्र में न हो तो साधना की कोई मूल्यवत्ता नहीं है। जितना भी चिंतन-मनन-निदिध्यासन हुआ उसका आधार आत्मा है।
चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त प्रायः सभी दर्शन ज्योतिर्मय आत्मा की परिक्रमा कर रहे हैं। वैदिक दर्शन में कुछ वैदिक आत्मा और जीव का भेद करते हुए जीव तत्व को कम महत्त्व देते हैं। उनके अभिमत से मोक्ष में आत्मा जीव भाव से मुक्त हो जाती है । किन्तु जैन दर्शन आत्मा और जीव का भेद नहीं करता है। आत्मा का ही अपर नाम जीव है ।
अस्तित्व का जहां तक प्रश्न है, वैदिक और जैन दार्शनिकों ने समान तर्क दिये हैं। चार्वाक और बौद्धों की आलोचना में भी दोनों एक मत हैं किन्तु मोक्ष के स्वरूप और प्रक्रिया को लेकर जैन और वैदिक दर्शन में भिन्नताएं हैं।
ब्रह्म सूत्र भाष्य में आचार्य शंकर ने केवल बौद्ध एवं जैन ही नहीं, वैशेषिक, सांख्य आदि हिन्दू दर्शनों पर भी तीखा प्रहार किया है।
मोक्षवाद की दृष्टि से अद्वैत वेदांत और सांख्य में पर्याप्त समानता है । दोनों की मान्यता है कि बन्ध और मोक्ष आत्मा के मूल रूप का स्पर्श नहीं करते। उनकी प्रतीति या अध्यास अविवेक के कारण है ।
सांख्य जगत का कारण प्रकृति को मानते हैं। अद्वैत वेदान्त ब्रह्म को । इसलिये सांख्य का खण्डन किया है पर मोक्षवाद में दोनों निकट हैं।
उपसंहार
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