Book Title: Jain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Author(s): Naginashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 247
________________ शरीर के फलस्वरूप है। मुक्ति में शरीर न होने से तज्जन्य संकोच - विस्तार नहीं है। मुक्तात्माओं में अवगाहना अंतिम शरीर के आधार पर मानी है। अवगाहना के तीन प्रकार है- उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । १. उत्कृष्ट अवगाहना - मुक्त जीव की ऊंचाई ५०० धनुष्य की होती है तो मुक्ति-क्षेत्र में उसके आत्म प्रदेश ३३३ धनुष्य ३२ अंगुल ऊंचाई में व्याप्त होते हैं। २. मध्यम अवगाहना - मुक्तात्मा के देह की ऊंचाई सात हाथ की हो तो उसके आत्म-प्रदेश ४ हाथ १६ अंगुल की ऊंचाई रहेगी। ३. जघन्य अवगाहना - मुक्तात्मा यदि २ हाथ की हो तो उसके आत्मप्रदेश १ हाथ एवं ८ अंगुल की ऊंचाई वाले होंगे। जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना के बीच मध्यम ऊंचाई के अनेक प्रकार हो सकते हैं। प्रश्न होता है निराकार आत्मा का आकार कैसे ? जैन दर्शन सापेक्षवादी है । निश्चय और व्यवहार दोनों को लेकर चलता है | निश्चय दृष्टि से मुक्तात्मा निराकार है किन्तु व्यवहार दृष्टि से जिस संस्थान से सिद्ध होते हैं । उसका दो तिहाई भाग वहां होता है। मुक्त होने की प्रक्रिया एक जैसी है किन्तु मुक्त होने के पूर्व की जो अवस्था होती है। उसके आधार पर पन्द्रह प्रकार होते हैं १. तीर्थ सिद्ध ४. अतीर्थंकर ७. बुद्धबोधित १०. नपुंसक लिंग १३. गृह लिंग २. अतीर्थ सिद्ध ५. स्वयं बुद्ध ८. स्त्री लिंग ११. स्वलिंग १४. एक सिद्ध ३. तीर्थंकर ६. प्रत्येक बुद्ध ९. पुरुष लिंग १२. अन्यलिंग १५. अनेक सिद्ध उत्तराध्ययन में कुछ अलग प्रकार से भेद किये हैं १. स्त्रीलिंग २. पुरुष लिंग ४. स्वलिंग ५. अन्यलिंग ७. उत्कृष्ट अवगाहना वाले ९. जघन्य अवगाहना वाले ११. अधोलोक से १३. जल में सिद्ध २२८ ३. नपुंसक लिंग ६. गृहलिंग ८. मध्यम अवगाहना वाले १०. ऊर्ध्वलोक से १२. तिर्यक् लोक से १४. समुद्र में सिद्ध जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन

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