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प्राप्त होती है। वैसे ही कर्म परिशाटन रूप निर्जरा एक रूप होते हुए भी हेतुओं की अपेक्षा अनशन, उनोदरी, भिक्षाचरी आदि बारह भेद हैं।
सकाम और अकाम रूप निर्जरा के दो विभाग हैं। बाल तप आदि से होने वाली निर्जरा अकाम है। मोक्ष प्राप्ति के निश्चय में होने वाली निर्जरा सकाम है।
संवर और निर्जरा दो ऐसे साधन हैं जिनसे आस्रवों को क्षीण किया जा सकता है। कषाय के नीर से अभिषिक्त हो कर्म का चमन पल्लवित होता है। कषाय के क्षीण होने पर रसघात, स्थिति घात होता है। स्थिति बंध के मूल में प्रदेश बंध है। रसबंध के मूल में प्रकृति बंध है। अनुभाग बंध क्षय होता है तब कर्म निष्प्राण हो जाते हैं और स्थिति बंध क्षय होते ही कर्म निर्जरित हो जाते हैं। इस प्रकार कर्म के बंध और विच्छेद में निर्जरा का महत्त्वपूर्ण स्थान है । निर्जरा का तु तप है। वायु- वेग से जैसे बादल हट जाते हैं। वैसे ही तप से आत्मा की शुद्धि (निर्जरा होती है।
तप आत्म-शक्ति के उद्घाटन की प्रक्रिया है। अग्नि की उष्णता से किसी वस्तु का मैल जलकर भस्म हो जाता है या वस्तु से अलग हो जाता है। उसका मूल स्वरूप प्रकट हो जाता है। वैसे ही तप से कर्म मल दूर होकर आत्मा स्वस्वभाव में स्थित हो जाती है। तप रसायन विज्ञान की अपघटन क्रिया के समान है।
अपघटन क्रिया उसे कहते हैं जिसके द्वारा यौगिक के संघटित तत्त्व पृथक् होकर अपनी शुद्ध अवस्था में आ जाते हैं। दो या दो से अधिक तत्त्वों के निश्चित अनुपात में संघटित होकर बना पदार्थ यौगिक कहलाता है । ९४
यौगिक की विशेषता है कि उसके गुण अपने घटक तत्त्वों के गुणों से भिन्न होते हैं जैसे दो अनुपात हाईड्रोजन गैस और एक अनुपात ऑक्सीजन गैस मिलकर पानी बनता है। दोनों गैसों के गुण अलग हैं। एक जलती है। दूसरी जलने में सहयोग करती है। पर दोनों के योग से बना पानी आग को बुझाता है।
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यौगिक के घटकों को सरल भौतिक विधियों से पृथक् नहीं किया जा सकता क्योंकि उनके अणुओं / परमाणुओं के बीच में विद्युत संयोजी बंध (आयनिक बांड) होता है ।" इस बंध के कारण उनमें ऐसा आकर्षण बल रहता है जिससे वे जुड़े रहते हैं । यदि यौगिक से उसके तत्व / घटक प्राप्त करना चाहें तो अपघटन विधि का आलंबन लेना पड़ेगा। यह अपघटन चाहे ऊष्मा का हो या विद्युत द्वारा ।
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जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन