Book Title: Jain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Author(s): Naginashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 257
________________ का, वृक्ष में मूल का महत्त्वपूर्ण स्थान है ०४ उसी प्रकार आत्म-प्राप्ति की साधना में तप और ध्यान का मूल्य है । इन्हीं से शाश्वत सिद्धि की उपलब्धि होती है। एक प्रश्न सामने आता है कि डारविन का विकासवाद अमीबा से पूर्ण मानव बनने का सिद्धांत है। जब विकास प्रवाह स्वाभाविक गति से हमें लक्ष्य तक पहुंचाये बिना रुकता नहीं तो फिर साधना करने की क्या अपेक्षा है? तपध्यान करने की उपयोगिता क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि डारविन ने विकास क्रम को जो यांत्रिक और जैविक माना वह मनुष्येतर योनियों पर तो लागू हो सकता है किन्तु मनुष्य योनि में उसका रूप बदल जाता है। यहां आकर विकास क्रम मनुष्य को एक ऐसा घेरा (वर्तुल) प्रदान करता है जिसके भीतर मनुष्य स्वतंत्र है। स्वतंत्रता का सही उपयोग कर वह विकास को समुचित दिशा दे सकता है। अपने भीतर गति को तेज कर सकता है । साधना का यही तात्पर्य है । उदाहरण के रूप में एक तिनका होता है वह बहता हुआ एक दिन अवश्य सागर में मिलता है। यह सत्य है किन्तु यदि उसे अपने भरोसे छोड़ दिया जाये तो पता नहीं कितना समय उसे समुद्र तक पहुंचने में लग जाये। कहां जाकर अटक जाये। कोई उस अटकाव को दूर करता रहे तो अपेक्षाकृत अल्प समय में सागर में मिल सकता है। साधना कर्म के अटकाव को दूर करने की प्रक्रिया है । साधना बाधाओं को दूर कर विकास को दिशा एवं गति देती है। वस्तुतः ससीम से असीम अवतरण का नाम साधना है। आत्मा में अनन्य शक्तियां हैं-ज्ञान-शक्ति, इससे प्रत्येक पदार्थ का विश्लेषणात्मक बोध होता है। जीव की एक समय की पर्याय में अनंत सिद्ध और अनंत केवली ज्ञेय रूप में आते हैं। ज्ञान की एक पर्याय भी अनंत सामर्थ्य युक्त है। वीर्य-शक्ति- यह अपने स्वरूप रचना का सामर्थ्य रखने वाली शक्ति है जो जीव के सभी गुणों में व्याप्त है । सुख- शक्ति - जीव अनंत आनंद से परिपूर्ण है। प्रभुत्व शक्ति-आत्मा के अनंत प्रदेशों के एक-एक प्रदेश में अनंत गुणों प्रभुता है। इन शक्तियों का प्रकटीकरण साधना के माध्यम से होता है। आगे चलकर साधना साध्य बन जाती है । ०२३८० • जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन

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