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दूसरी प्रक्रिया है- समुद्घात की । समुद्घात शब्द सम+उद्+घात, इन तीन का यौगिक है। सम का अर्थ है- एकीभाव । उद् अर्थात् बलपूर्वक और घात के दो अर्थ हैं- घात करना या समूह रूप से बलपूर्वक आत्म-प्रदेशों को शरीर बाहर निकालना। इतस्ततः प्रक्षेपण करना । कर्म पुद्गलों का निर्जरण करना ।
समुद्घात सात हैं - वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय, तैजस, आहारक, केवली । छह समुद्घात का सम्बन्ध छद्मस्थ से है। अंतिम केवली का वीतराग से। वेदना समुद्घात से वेदनीय कर्म पुद्गलों का, कषाय समुद्घात से कषाय कर्म पुद्गलों का, मारणान्तिक से आयुष्य कर्म - पुद्गलों का शाटन होता है। वैक्रिय, आहारक एवं तैजस समुद्घात से तद् - तद् नाम कर्म का शाटन होता है।
जैनागम में ध्यान के ४ प्रकार माने हैं - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । प्रथम दो अप्रशस्त हैं अंतिम दो प्रशस्त । यदि साधक का चित्त शुक्ल ध्यान में अन्तर्मुहूर्त तक स्थिर रहता है तो परमाणु ऊर्जा के समान इतनी ऊर्जा निकलती है कि सर्वप्रथम सत्तर कोड़ा - कोड़ी सागर की आयु वाले मोहनीय कर्म का क्ष
जाता है। साथ ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय भी निर्मूल हो जाते हैं तब आत्मा-परमात्मा की स्थिति में पहुंच जाती है। हल्की हो ऊपर उठ जाती है।
विज्ञान के अनुसार कोई भी पदार्थ हल्का होने पर ऊपर उठ जाता है। नाभिकीय विखण्डन में जैसे यूरेनियम से वेरियम बनता है, उसी तरह सजीव यौगिक ध्यान रूपी ऊर्जा द्वारा विखण्डित होकर आत्मा से परमात्मा बन जाता है।
नाभिकीय संलयन (न्यूक्लर फ्यूजन ) यह ऐसी प्रक्रिया है जिसमें दो हल्के नाभिक आपस में मिलकर एक भारी नाभिक बनाते हैं। इस प्रक्रिया में द्रव्यमान की क्षति अधिक होने से अत्यधिक ऊर्जा उत्पन्न होती है जिसे नाभिकीय संलयन ऊर्जा कहते हैं। नाभिकीय संलयन में मुक्त ऊर्जा (प्रति इकाई द्रव्यमान) का मान नाभिकीय विखण्डन से प्राप्त ऊर्जा के मान का लगभग आठ गुना होता है।
सजीव यौगिक तप-ध्यान के द्वारा अपघटित होकर सयोगी केवली तक शुद्ध अवस्था प्राप्त कर लेता है। सिद्धत्व प्राप्त करने के लिये वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु चार अघाति कर्मों को क्षय करना अवशिष्ट रहता है । सयोगी hair की आयु स्थिति एवं वेदनीय, नाम, गोत्र की स्थिति समान रहती है तब
जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
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