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सम्यक्त्व -यथार्थ दृष्टिकोण। विरति- नियंत्रित जीवन-शैली। अप्रमाद-आत्म-जागृति। अकषाय-क्रोधादि मनोवेगों का अभाव। अयोग- प्रवृत्ति निरोध (अक्रिया)। स्थानांग में संवर के आठ भेदों का भी निरूपण है९
पांच इन्द्रिय संवर और तीन योगों का संवर। इनके अतिरिक्त ५७ भेदों का भी विवेचन आगमों में मिलता है।
बौद्ध परम्परा में भी संवर शब्द का प्रयोग संयम के अर्थ में हुआ है। कायिक, वाचिक एवं मानसिक प्रवृत्तियों का संयम। गीता में संवर शब्द नहीं मिलता किन्तु मन-वाणी-शरीर और इन्द्रियों के संयम का चिंतन अवश्य किया गया है। जैसे- कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है। वैसे ही साधक सब
ओर से अपनी इन्द्रियों के विषयों को वश कर लेता है उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।९०
निर्जरा-संवर का कार्य है प्रवाह को रोकना। भीतर का शुद्धिकरण निर्जरा का कार्य है। निर्जरा का अर्थ है- जर्जरित करना। अलग करना।९१ पूर्व बद्ध कर्मों को निर्वीर्य अथवा फलरहित करना निर्जरा है। आत्मा के साथ कर्मपरमाणुओं का सम्बन्ध होना बंध है और आत्मा से अलग हो जाना निर्जरा है।
उत्तराध्ययन में इसे एक रूपक से स्पष्ट किया है। किसी बड़े सरोवर के जल-स्रोतों को बंद कर, उसके भीतर का जल उलीच कर निकाला जाये तथा ताप से सुखाया जाये तो विशाल सरोवर भी सूख जाता है। इस रूपक में आत्मा सरोवर है। कर्म पानी है। कर्म का आस्रव जल आगमन का स्रोत है। जलागमन द्वारों को रोक देना संवर है। पानी का उलीचना या सुखाना निर्जरा है।
इस रूपक से स्पष्ट है कि संवर से नये कर्म रूपी जल का आगमन रुक जाता है। लेकिन पूर्व में बंधे हुए कर्मों को आत्मा से हटाना निर्जरा है। निर्जरा यानी आत्मा की उज्ज्वलता, वह एक रूप है ९२ किन्तु कारण में कार्य का उपचार कर उसके बारह भेद ३ बतलाये हैं। जैसे अग्नि एक रूप होते हुए भी निमित्त भेद से काष्ठाग्नि, पाषाणाग्नि, तृणाग्नि आदि पृथक्-पृथक् संज्ञा
मोक्ष का स्वरूप : विमर्श
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