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गीता में प्रकारान्तर से प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा का भी उल्लेख है। प्रणिपात - श्रद्धा, परिप्रश्न- ज्ञान और सेवा कर्म के ही द्योतक हैं। उपनषिदों में श्रवण, मनन, निदिध्यासन के रूप में त्रिविध साधना का निरूपण है जो श्रद्धा, ज्ञान और कर्म का ही संकेत है।
वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, वेदान्त ज्ञान को अत्यधिक महत्त्व देते हैं । ८२ कुमार भट्ट ने कर्म और ज्ञान को, रामानुज ने भक्ति को मोक्ष मार्ग में प्रमुख माना है, जैनों ने रत्नत्रयी को । जैन दार्शनिकों ने तीनों की समन्विति पर बल दिया है। मूलाचार में उपमा देकर समझाया है- जहाज चलाने वाला नियामक ज्ञान है। पवन के स्थान पर ध्यान है । जहाज चारित्र है । एकान्तवाद को स्वीकार नहीं किया। उनके अनुसार दर्शन के बिना ज्ञान नहीं, ज्ञान के अभाव में आचरण में निर्मलता नहीं आती और बिना सम्यक् आचरण के मुक्ति असंभव है । ८३
पाश्चात्य दार्शनिकों ने तीन नैतिक आदेश बताये हैं- नो दाइसेल्फ (अपने को जानो) एक्सेप्ट दाइसेल्फ (अपने को स्वीकार करो) बी दाइसेल्फ (अपने में बने रहो । )
इस प्रकार समन्वय की दृष्टि से देखा जाये तो ज्ञान, भक्ति और कर्म; शील, समाधि और प्रज्ञा, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र यह मोक्ष मार्ग है। शब्द भेद होते हुए भी अर्थ साम्य है।
वैदिक
बौद्ध गीता
जैन
दर्शन शील
ज्ञान
चारित्र
सत्य
शिव
उपनिषद
श्रवण
मनन
पाश्चात्य दर्शन नो दाइसेल्फ एक्सेप्ट दाइसेल्फ
बी दाइसेल्फ
ज्ञान
समाधि भक्ति
प्रज्ञा
कर्म
निदिध्यासन
सुन्दर आत्म शक्ति की विशुद्ध श्रद्धा, पुष्ट ज्ञान और तदनुरूप प्रवृत्ति करने पर ही साधक साध्य को प्राप्त कर सकेगा।
दर्शन शब्द अनेक अर्थों का संवाहक है किन्तु जैनागमों में विशिष्ट अर्थ में इसका प्रयोग है। दर्शन का अर्थ है - आस्था, श्रद्धा, विश्वास, भक्ति आदि । जो विश्वास या आस्था आत्मशुद्धि, अध्यात्म या मोक्ष की ओर उन्मुख हो वह सम्यग्दर्शन है। सम्यग् दृष्टिकोण ।
आत्मा शरीर रूपी पोत द्वारा 'अज्ञान' के विशाल महासागर में यात्रा करते-करते जब संसार भ्रमण का काल अर्धपुद्गल परावर्तन प्रमाण शेष रहता है तब सम्यग् दर्शन की योग्यता उपलब्ध होती है।
मोक्ष का स्वरूप : विमर्श
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