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मोक्ष आत्मा की वह विशुद्ध अवस्था है जिसमें उसका किसी भी विजातीय तत्त्व के साथ संयोग नहीं रहता। आत्मा स्व-स्वरूप में स्थिर हो जाती है।
अब हमें मोक्ष-मार्ग पर चिंतन करना है। मार्ग का अर्थ है- खोज।७८ जिसमें मोक्ष मार्ग का अन्वेषण होता है, वह मोक्ष मार्ग कहलाता है। मोक्ष प्राप्य है। मार्ग है- उसकी प्राप्ति का उपाय।
सूत्रकृतांग सूत्र में मार्ग के समानार्थक कुछ शब्दों का उल्लेख मिलता है। जैसे-पंथ, मार्ग, न्याय, विधि, धृति, सुगति, हित, सुख, पथ्य, श्रेय, निवृत्ति, निर्वाण, शिव आदि। इनकी द्रव्य-भाव रूप से विवक्षा की गई है।
संक्षेप में मुक्ति का पथ है- क्षायिक भाव। विस्तार से सम्यक् ज्ञान (Right Knowledge) सम्यक् दर्शन (Right Belief) सम्यक् चारित्र (Right Conduct)। मोक्ष प्राप्ति के लिये कहीं सम्यक् ज्ञान को विशेष महत्त्व दिया है तो कहीं सम्यक् दर्शन को एवं कहीं सम्यक् चारित्र को। आचारांग में ज्ञान को ही कर्म बन्धन तोड़ने का एक महत्त्वपूर्ण साधन माना है किन्तु यह कोई महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं है क्योंकि मोक्ष-प्राप्ति में तीनों साधन एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। अतः एक के उल्लेख से तीनों पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रकाश पड़ता है।
उत्तराध्ययन ९ में सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप रूप चतुर्विध मोक्ष-मार्ग का विधान है। तप का समावेश चारित्र में किया जाता है इसलिये तीन रत्न का ही अधिक उल्लेख किया जाता है। रत्नत्रयी मोक्ष प्राप्ति के हेतु हैं। इनकी तुलना वैदिक परम्परा में भक्ति, ज्ञान और कर्म से तथा बौद्धों के शील, समाधि और प्रज्ञा से की जा सकती है।
पूर्णता की प्राप्ति के लिये इन तीनों के पार्थक्य के बदले त्रयी की संयुक्त अवस्था आवश्यक है। हृदय, मस्तिष्क और हस्त के जैसा तीनों का परस्पर सम्बन्ध है।
तथागत बुद्ध ने १ सम्यक् दृष्टि, २ सम्यक् संकल्प, ३ सम्यक् वाक, ४ सम्यक् कर्मान्त, ५ सम्यक् आजीविका, ६ सम्यक् व्यायाम, ७ सम्यक् स्मृति, ८ सम्यक् समाधि को आर्य अष्टांग-मार्ग कहा है। अन्य मार्गों में इन्हें श्रेष्ठ माना है।८१
वैदिक परम्परा में परम सत्ता के तीन पक्ष माने हैं- सत्य, शिव और सुन्दर। सत्य की उपलब्धि के लिये ज्ञान, शिव की उपलब्धि के लिये सेवा या कर्म और सुन्दर की उपलब्धि के लिये भाव व श्रद्धा है।
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- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन