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___ प्रश्न उठता है, सिद्ध (मुक्तात्मा) लोकान्त से आगे क्यों नहीं जाते? स्थानांग सूत्र में इसके चार करणों का उल्लेख है
१. आगे गति का अभाव होने से, धर्मास्तिकाय का अभाव होने से, २. धर्मास्तिकाय लोक की सीमा पर नियन्ता के रूप में खड़ा है जिसके कारण जीव अपनी यात्रा उसी सीमा तक कर सकते हैं, ३. लोकान्त में परमाणुओं के रुक्ष होने से, ४. अनादिकालीन स्वभाव होने से। प्रश्न : मुक्त आत्माओं में इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि का अभाव है। तब
अतीन्द्रिय केवल ज्ञान से पदार्थों को कैसे जानते हैं? उत्तर : केवलज्ञान दर्पण के समान है। जैसे दर्पण में पदार्थ सामने आते ही
प्रतिबिम्ब पड़ता है। वैसे ही केवलज्ञान में सभी पदार्थ प्रतिबिम्बित हो जाते हैं। उन्हें पदार्थ जानने के लिये प्रयत्न नहीं
करना पड़ता। प्रश्न : एक स्थान में अनेक सिद्ध कैसे रहते हैं ? उत्तर : जैसे एक कमरे में अनेक बल्वों या दीपकों का प्रकाश परस्पर मिल
जाता है। टकराता नहीं , वैसे ही मुक्त जीवों के ज्योतिर्मय आत्म
प्रदेश परस्पर अवगाढ होकर स्थित हो जाते हैं। एक हॉल में धूप जलाया। सुगंध पूरे हॉल में व्याप्त है। धूप है। हवा है। संगीत है। व्यक्ति भी बैठे हैं। कोई सुगंध का कण न ध्वनि से टकराता है। न धूप के अणु हवा के अणुओं को बाहर निकालते हैं। न स्थान खाली करना पड़ता है। न किसी को किसी से शिकायत है, न स्थान का अभाव महसूस किया जाता है। ऐसी स्थिति मोक्ष की है।
जिस प्रकार १ नदियां समुद्र में जाकर विलुप्त हो जाती हैं, अपने पृथक् नाम-रूप को खोकर समुद्र में एकाकार दिखती हैं इसी प्रकार ज्ञानी-पुरुष नामरूप से मुक्त हो ज्योति में ज्योति रूप विलीन हो जाते हैं।
सभी दर्शनों के अंतिम साध्य के संदर्भ में चिन्तन करें तो दो पक्ष सामने आते हैं। प्रथम पक्ष का अंतिम साध्य सुख नहीं। उनके अभिमत का आधार यह है कि मोक्ष में शाश्वत सुख नामक कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है। उसमें जो-कुछ है दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति है। दूसरा पक्ष शाश्वत सुख को मोक्ष कहता है। वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, जैन दर्शन के आधार पर मुक्त जीवों का सुख शाश्वत है। अनंत और अनुपम है।७२ विश्व में कोई भी ऐसा उपमेय दृष्टिपथ में
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- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन