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९. पंचेन्द्रियत्व, १०. सम्यक्त्व, ११. शील संप्राप्ति, १२. क्षायिक भाव, १३. केवल ज्ञान, १४. मोक्ष आदि।
प्रश्न यह है, मुक्त आत्माएं कहां रहती हैं ? उनके रहने का स्थान लोक के किस भाग में है ? कैसा है ?
___ भक्तिमार्गी वेदान्ती के मत से विष्णु भगवान के विष्णुलोक में जो ऊर्ध्वलोक है वहां मुक्त जीवात्मा का गमन होता है। जैनेतर लोग जिसे विष्णुलोक, गौलोक या वैकुण्ठधाम कहते हैं।
भागवत ९ आदि दर्शनों में अपुनर्भव मुक्ति को माना है। जो अवस्था अव्यक्त एवं अक्षर है उसे परमगति कहते हैं।
जैन दर्शन में उसे मुक्ति या सिद्धालय कहा जाता है। वह लोक के अग्रभाग६० में है। मानव क्षेत्र एवं मुक्ति क्षेत्र का आयाम- विष्कंभ समान है। समश्रेणी में अवस्थित है। दोनों की लम्बाई-चौड़ाई पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है। परिधि घेरा १ करोड ८२ लाख ३० हजार दौ सो योजन से कुछ अधिक है। सिद्धशिला६१ श्वेत स्वर्णमयी है। श्लक्ष्ण है। मसृण है। कोमल, चमकदार और नीरज-निष्पंक है। छत्ते के आकार में है। मध्यभाग की मोटाई आठ योजन की है। अंतिम छोर मक्षिका के पांख जैसा पतला है। अनंत संख्या में सिद्ध आत्मा वहां रहती हैं।
वहां जन्म-मरण, जरा, व्याधि की पीड़ा नहीं। वह भूमि निर्वाण, सिद्धि, अव्यावाध, लोकाग्र, शिव के रूप में विख्यात है।६२ ।।
सिव-मयल-मरूअ-मणंत-मक्खय-मव्वावाह-अपुणराविति आदि अनेक विशेषणों से मुक्ति का मूल्यांकन किया है___शिव - यह कल्याण और अनंत सुख का अर्थवाचक है। सिद्धगति
भी अनंत सुख की दायिका है। अचल - वह स्थान अचल है। अरुज - रोगमुक्त है। अनंत __ - अन्तरहित है। सिद्धों का ज्ञान भी अनंत है। अक्षय - सिद्धगति का कभी क्षय नहीं होता। उनकी अवगाहना
अटल है। अव्यावाध - पीड़ाव्याधि रहित है। अपुनरावृत्ति – पुनरागमन नहीं होता।
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-जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन