Book Title: Jain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Author(s): Naginashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 241
________________ दूसरा तथ्य यह है कि मुक्त आत्माओं के संसार में आने का कोई कारण ही नहीं रहा, वे संसार में कैसे आ सकते हैं ? जहा दंड्ढाणं वीयाणं न जायंति पुणंकुरा। कम्मवीएसु दड्ढेसु न जायंति भवांकुरा।।५० बीज के दग्ध हो जाने पर अंकुरित नहीं होते वैसे ही कर्म मुक्त आत्माओं के जन्म-मरण नहीं होते। तर्क उठता है, यदि मुक्तात्माओं का पुनरागमन नहीं है तो सभी जीवों के मुक्त होने पर क्या संसार जीवशून्य नहीं हो जायेगा? जैन दर्शन इस तर्क को आधारहीन मानता है। कारण जितने जीव मुक्त होते हैं उतने ही जीव निगोद या अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आ जाते है । अव्यवहार राशि का अक्षय खजाना कभी खाली नहीं होता। गोम्मटसार५३ में भी निर्देश है कि आठ समय अधिक छह मास में जितने जीव मोक्ष में जाते हैं उतने ही नित्य निगोद से निकल कर व्यवहार राशि में आ जाते हैं। ___ इस प्रकार जीवों के आयात की मान्यता, जैन दर्शन का गहरा और तलस्पर्शी चिंतन है जो अन्यत्र दुर्लभ है। जैन दर्शनानुसार संसार कभी जीव शून्य हो नहीं सकता। क्योंकि भव्य जीवों के समान अभव्य ४ जीव भी हैं, जिनकी मुक्ति कभी त्रिकाल में भी संभव नही। अभव्य के साथी कुछ भव्य जीव भी ऐसे हैं, मोक्ष नहीं जाते अतः संसार के खाली होने का संदेह भी व्यर्थ है। जीव राशि अनंत है। अनंत का अंत कैसे होगा? गणितीय समीकरण में भी संख्या के क्षेत्र में अनंत में से अनंत को निकालें तो कितने शेष रहेंगे? उत्तर होगा-अनंत ही। अनंत का अंत कभी होगा ही नहीं। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते (वृ.उ.अ.५ प्रथम ब्राह्मण१) यह सूक्त इसका संवादी कहा जा सकता है। भगवती सूत्र में मोक्ष के संबंध में निरूपण है-"हंता ? सिज्झइ, बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ, सव्व दुक्खाण अंतं करेइ"५५-यहां मुक्त होने की पांच अवस्थाओं का प्रतिपादन है। १. सिद्ध होना - जिसका प्रयोजन सिद्ध हो गया, वह सिद्ध अवस्था है। २. प्रशान्त होना – बुझ जाना। जन्म-मृत्यु की आग बुझ जाती है। .२२२ जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन

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