Book Title: Jain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Author(s): Naginashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 240
________________ जलाशय के ऊपरी तल पर आ जाती है। वह उसका स्वभाव है। इसी प्रकार प्रतिबंध कर्म द्रव्य से मुक्त होते ही जीवात्मा लोकान्त के अग्रभाग पर अवस्थित होता है। मुच्यमान जीव की गति लोकान्त तक ही है, आगे नहीं जा सकते। ३. बंधन का छूटना १- (बन्ध छेदात् एरण्ड बीजवत) एरंड बीज फली के टूटते ही छिटक कर उपर उठता है , वैसे ही कर्म बंध के छेदन से जीवात्मा ऊर्ध्वगति करता है। ४. गति परिणाम४२-(गति परिणामाच्च अग्नि शिखावच्च) अग्नि शिखा स्वभाव से ही ऊपर की ओर उठती है वैसे ही जीव की स्वाभाविक शक्ति एवं गति के रोकने वाले कर्मों के नष्ट होते ही जीव ऊर्ध्वगमन करता है। भगवती में अकर्मा की गति के हेतुओं का वर्णन है। 'गोयमा ! निस्संगयाए, निरंगणयाए, गति परिमाणेणं, बंध छेदाणयाए, निरंधणयाए, पुव्व पओगेणं अकम्मस्स गति पणण्णायति'-४३ निस्संगता, निरंजनता, गति परिणाम, बंधन-छेदन, निरिन्धनता,जैसे अग्नि शिखा की स्वभावतः ऊर्ध्वगति है। पूर्व प्रयोग से अकर्मा की ऊर्ध्वगति होती है। मुक्त४४ आत्मा की लोकान्त से आगे गति नहीं। कारण गति सहायक धर्मास्तिकाय का वहां अभाव है। लोकान्त में जाकर जीव वहीं स्थान विशेष पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं। महावीर से पूछा- मुक्त जीव कहां प्रतिहत होते हैं? कहां प्रतिष्ठित होते हैं ? कहां शरीर छोड़ते हैं ? कहां जाकर सिद्ध होते हैं ? उत्तर में कहा- अलोक में प्रतिहत है। लोकाग्र में प्रतिष्ठित है। मनुष्य लोक में शरीर छोड़ते हैं। लोकान में सिद्ध होते हैं।४५ वहां पहुचने पर पुनः जन्म नहीं होता। आत्मा वहां शाश्वत है। जीव और पुद्गल दोनों गतिशील द्रव्य हैं। अंतर इतना है कि पुद्गल की स्वाभाविक गति अधोमुखी है और जीव की ऊर्ध्वगति। इसलिये मुक्त होने पर पुनः संसार में नहीं आते। __ सांख्य ६ एवं वेदान्त ७ भी मुक्त आत्मा का संसार में पुनरागमन नहीं मानते। गीता में जब-जब धर्म का ह्रास होता है तब धर्म की पुनः प्रतिष्ठा के लिये भगवान पुनरवतार लेते हैं। आजीवक८ मतानुयायी तथा सदाशिववादी भी इस मान्यता के पक्षधर हैं। किन्तु यह धारणा न्यायसंगत नहीं लगती। व्यवहार की भूमिका पर ज्ञात होता है गुरुत्व स्वभाव वाले पदार्थ ऊपर से नीचे आते हैं। धुआं ऊपर उठता है। मुक्त जीवों का स्वभाव अगुरुलघु है अतः ऊर्ध्वगमन सहज है। मोक्ष का स्वरूप : विमर्श - २२१.

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