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आचार्य हरिभद्र ने कहा- परिभाषाओं में भेद हो सकता है पर तत्त्व में कोई अंतर नहीं । संसारातीत तत्त्व जिसे निर्वाण कहते हैं, अनेक नामों से प्रसिद्ध है किन्तु एक ही है । ३५
उपनिषद में ऐसा ही साम्य सूत्र उपलब्ध है- “यतो वाचा निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह । आनन्दः ब्रह्मणो विद्वान, न विभेति कदाचन ।”
जीव के मुक्त होने की प्रक्रिया
जिस प्रकार अनुकूल पवन से नौका पार पहुंचती है, वैसी ही शुद्ध भावना से आत्मा मुक्त होती है। जीव ७ का क्रमिक आरोह जानने की दृष्टि से दशवैकालिक का चतुर्थ अध्ययन बहुत उपयोगी है। वहां आरोहण की सोपान वीथियों का सुव्यवस्थित आकलन है।
वैदिक३८ दर्शन में मुक्त होने की क्रम व्यवस्था में चार पहलुओं का
उल्लेख है
दिव्य के साथ घनिष्ठता ।
दिव्य के साथ स्वरूप की समानता जो उसके तेज को प्रतिबिम्बित करती है।
३. सालोक्य
४. सायुज्य
दिव्य के साथ एक ही लोक में सचेत । सह अस्तित्व । दिव्य के साथ संयोग जो एकरूपता के समान है। वैदिक और अवैदिक दर्शनों में मुक्ति की क्रम व्यवस्था में कहीं संक्षिप्त, कहीं विस्तार से वर्णन मिलता है।
१. सामीप्य
२. सारूप्प
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मुक्त जीवों का ऊर्ध्वगमन
मुक्त जीव स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर से मुक्त अविग्रह गति से वहां पहुंचता है । तत्त्वार्थ सूत्र में मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन के ४ कारण बताये हैं१ पूर्व प्रयोग, २ संग का अभाव, ३ बंधन - मुक्त, ४ गति परिणाम ।
१. पूर्व प्रयोग ९ - ( पूर्व प्रयोगात् अविरुद्ध कुलाल चक्रवत्) । जैसेकुंभार का चाक, डंडा और हाथ हटा देने पर भी पूर्वप्राप्त वेग के कारण चक्र घूमता रहता है वैसे ही कर्म - मुक्त जीव पूर्व कर्म से प्राप्त वेग के कारण स्वभाव से ऊर्ध्व गति करता है।
प्रश्न- भंते! क्या अकर्म के गति होती है ?
गौतम ! होती है।
मोक्ष का स्वरूप : विमर्श
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