Book Title: Jain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Author(s): Naginashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 239
________________ भंते! अकर्म के गति कैसे होती है ? गौतम ! निस्संगता, निरञ्जनता, गति - परिणाम, बंधन - छेदन, निरिन्धनता और पूर्व प्रयोग इन कारणों से अकर्म के गति कैसे होती है ? गौतम ! जैसे कोई पुरुष सूखे, निश्छिद्र और निरुपहत तुम्बे का पहले परिकर्म करता है फिर दर्भ और कुश से उसका वेष्टन करता है। वेष्टन कर आठ मिट्टी के लेपों से लीपता है। धूप में सुखा देता है । फिर उसे अथाह, अतरणाय पुरुष से अधिक गहरे जल में प्रक्षिप्त करता है। गौतम ! क्या वह गुरुता से, भारीपन से जल में नीचे धरातल पर प्रतिष्ठित होता है ? हां भगवन ! होता है । यदि वह लेप रहित, भारीपन से मुक्त होकर क्या जल में नीचे जायेगा ? नहीं। वह उपर ही तैरता है । गौतम ! इसी प्रकार निस्संगता आदि कारणों से अकर्म के गति होती है। भंते! बंधन का छेदन होने से अकर्म के गति कैसे होती है ? गौतम ! जैसे कोई गोल चने की फली, मूंग की फली, उड़द की फली, शाल्मली की फली या एरण्ड फल धूप लगने से सूख जाता है। उसके बीज प्रस्फुटित हो ऊपर की ओर उछल जाते हैं। इसी प्रकार बंधन-छेदन होने पर अकर्म के गति होती है। भंते! निरिन्धन होने से अकर्म के गति कैसे होती है ? गौतम ! जैसे ईंधन से मुक्त धुएं की गति स्वभाव से ही किसी व्याघात के बिना ऊपर की ओर होती है इसी प्रकार निरिन्धनता से अकर्म की गति होती है। भंते! पूर्व प्रयोग से अकर्म के गति कैसे होती है ? गौतम ! जैसे धनुष्य से छूटे वाण की निर्व्याघात लक्ष्य की ओर गति होती है। इसी प्रकार पूर्व प्रयोग से अकर्म के गति होती है । -४० २. संग का अभाव - ( असंगत्वात् व्यपगत लेपालाम्बुवत्) जैसे अनेक लेपों से युक्त तुम्बी जल के तल में पड़ी रहती है किन्तु मिट्टी की परतें हटते ही •२२०• जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन

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