________________
जो इस परदे को उठाने में समर्थ है वही जीवन की नित्यता समझ पाता है। उसके लिये काल के तीनों भेद समाप्त हो जाते हैं।
भारतीय दर्शन की महत्त्वपूर्ण विशेषता है-मोक्ष का चिन्तन। मोक्ष का संप्रत्यय भारतीय दर्शनों की अमूल्य निधि है। मोक्ष वह अवस्था है जहां से पुनरागमन नहीं होता। विभिन्न दार्शनिकों की दृष्टि में मोक्ष की अवधारणा
सांख्य दर्शन में प्रकृति एवं पुरुष का विवेक ही मोक्ष है। आध्यात्मिक, आधिभौतिक या आधिदैविक दुःखत्रय से आत्यन्तिक निवृत्ति तथा स्वाभाविक स्थिति की प्राप्ति ही मोक्ष है।'
गीता में भी कृष्ण कहते हैं जहां जाकर वापस लौटना नहीं पड़ता वही मेरा धाम है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में-दुःख का अत्यन्त वियोग ही मोक्ष है।
उनके अभिमत से मुक्तावस्था में बुद्धि, सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, ज्ञान आदि नौ विशेष गुण आत्मा से अपगत हो जाते हैं क्योंकि इनकी उत्पत्ति शरीराश्रित है। शरीर के अभाव में उनका अभाव हो जाता है।
अद्वैत वेदान्त में जीवात्मा एवं आत्मा के तादात्म्य की उपलब्धि मोक्ष है। बंधन अविद्या से होता है। विद्या से उनकी निवृत्ति। अद्वैत के अनुसार मुक्ति न प्राप्य है। न उत्पाद्य। वह साक्षात्कार का विषय हैं।
मीमांसकों ने आत्मा की स्वाभाविक अवस्था को ही मोक्ष माना है।' बंधन तीन हैं-भोगायतन (शरीर) भोग साधन (इन्द्रियां) भोग-विषय (समस्त जागतिक पदार्थ)। इन बंधनों से मुक्त हो जाना मोक्ष है।
जैन दर्शन में समस्त कर्म समूह का आत्यन्तिक क्षय मोक्ष है। योग एवं कषाय तथा प्रकंपन और वेग का सर्वथा अभाव मोक्ष है। आत्मा की पूर्ण अनावृत अवस्था। सूत्रकृतांग के अनुसार आत्मा की स्वतंत्रता मोक्ष है। बंधन का सर्वथा अभाव मोक्ष है। आत्मा की स्वरूपावस्था मोक्ष है।
महावीर ने मोक्ष के स्वरूप और स्थान दोनों के सम्बन्ध में सयौक्तिक विवेचन किया है। समस्त कर्मों के विलय होने पर आत्मा के निर्मल एवं निश्चल स्वरूप की प्राप्ति मोक्ष है। जैन परम्परा में मोक्ष शब्द विशेष रूप से व्यवहृत हुआ है। मोक्ष का सीधा अर्थ है-छूटना। अनादिकाल से जिन कर्मों ने बांध रखा है। उन बंधनों की परतंत्रता को काट देने पर जो बंधा था वह स्वतंत्र हो जाता है। यही उसकी मुक्ति है।
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन