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तृण-गोमय-काष्ठाग्नि, कण दीप प्रभोपमा।
रत्न तारार्क चन्द्राभा सद् दृष्टेदृष्टिरष्टधा।। मित्रा - बोध तिनके की अग्नि के कण जितना। तारा
गोबर-छाण की अग्नि के कण जितना। बला
काष्ठ की अग्नि के कण जितना। दीप्रा
दीपक की ज्योति-प्रभा के समान। स्थिरा रत्न के प्रकाश जितना। कान्ता - तारा के प्रकाश के जितना। प्रभा - सूर्य के प्रकाश के जितना। परा - चन्द्र के प्रकाश के जितना।
आचार्य हरिभद्र ने आठ दृष्टियों में पहली चार को मिथ्यात्व गुणास्थान से जोड़ा है। अगली चार दृष्टियों का सम्बन्ध सम्यक्त्व और चारित्रमय विकास से है जो चतुर्थ गुणस्थान से प्रारंभ होकर अंतिम अयोगी केवली गुणस्थान से सम्बद्ध है।
ओघ दृष्टि में जीव परिभ्रमण करता रहा है। ओघ का अर्थ है- लोक प्रवाह, पतित दृष्टि। केवल भौतिक सुखों में ओत-प्रोत दृष्टि को ओघ कहा है। ओघ दृष्टि से योग दृष्टि में लाने के लिये ८ दृष्टियों की सीढियों को क्रमशः पार किया जाता है। एक-एक सोपान पर आरोहण करते ज्ञान का क्षेत्र, प्रकाश का विस्तार भी बढता जाता है। प्रकाश की स्थिरता, प्रमाण, काल, क्षेत्र, तीव्रता आदि सबका विचार किया है। विषय सुखाभिलाषी बुद्धि मित्रा दृष्टि में बदल जाती है। आत्मा का पूर्ण लक्ष्य नहीं बनता किन्तु लक्ष्योन्मुख भूमिका प्रस्तुत हो जाती है।
किसी व्यक्ति को उठाने कि लये ४-५ आवाज दी। आखिरी आवाज में नींद टूटी। वह उठा। पहली आवाज में ध्वनि कान से टकराती है किन्तु जागृति नहीं आती।
पहला पत्थर फेंकने से आम नहीं गिरा। आम भले २१वें पत्थर से गिरा हो फिर भी पहले से भूमिका बन जाती है। इन्हें समझने के लिये प्रकाश का उदाहरण बहुत सार्थक है। प्रकाश के कण शुरू होते-होते सूर्य और चन्द्र का प्रकाश प्राप्त होता है।
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-जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन