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१. श्रोतापन्न भूमि-श्रोत का अर्थ है- प्रवाह। यहां प्रवाह का आशय धर्म
प्रवाह से है। जो धर्म प्रवाह संपृक्त नहीं वह पृथक् जन है। वैसा व्यक्ति जब प्रवाह में आ जाता है तब उसकी श्रोतापन्न संज्ञा होती है। फिर
प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है। २. सकृदानुगामी भूमि-श्रोतापन्न पुरुष आगे बढ़ते हुए ऐसी स्थिति प्राप्त
कर लेता है, अपने वर्तमान जन्म के बाद एक बार ही उसे भव-बन्धन में
आना होता है। तदनन्तर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। ३. अनागामी भूमि-अनागामी वह साधक है जिसकी साधना इतने उच्च शिखर पर होती है कि उसे फिर जन्म नहीं लेना पड़ता। वही अंतिम
भव है। ४. अर्हत् भूमि-विकास की उच्चतम अवस्था जहां अन्य सारे विकास मिट
जाते हैं।
ज्ञान नेत्र खुल जाते हैं। जीवन में सहज समाधि आ जाती है। जीवन्मुक्ति की अवस्था है। साधक कृतकार्य बन जाता है। करणीय कुछ नहीं रहता। सर्वपूज्य महापुरुष की स्थिति पा लेता है।
पहली भूमिका की तुलना जैन दर्शन में वर्णित चार से सात गुणस्थान से की जा सकती है। दूसरी की आठवें से बारहवें तक। इसमें राग-द्वेष मोह आदि पर साधक प्रहार करता है। अंत में मोह क्षीण करता है। क्षीण मोह गुणस्थान तीसरी अनागामी भूमि के समकक्ष है। चौथी भूमिका सयोगी केवली गुणस्थान जैसी है।
उत्थान या विकास के संदर्भ में महायान में नया चिंतन चला। वहां साधना की दस भूमियां स्वीकार की गई हैं
१. प्रमुदिता, २. विमला, ३ प्रभाकरी, ४ अर्चिष्मती, ५ सुदुर्जया, ६ अभिमुक्ति, ७ दूरंगमा, ८ अचला, ९ साधुमति, १० धर्म मेघ।
धर्म मेघ यह साधक के विकास की चरमावस्था है। यह वह स्थिति है। जहां साधक सभी प्रकार की समाधियों को स्वायत्त कर लेता है। पांचवीं सुदुर्जया भूमिका में साधक के द्वारा ध्यान पारमिता का अभ्यास किये जाने का विशेष रूप से उल्लेख है। उसका अभिप्रेत चैतसिक एकाग्रता प्राप्त करना है। ऐसा करके वह बुद्धत्व में अभिषिक्त होने की स्थिति पा लेता है।
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जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन