Book Title: Jain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Author(s): Naginashreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 226
________________ जैन दर्शन के गुणस्थानों साथ तुलना इस प्रकार की जा सकती है१. प्रमुदिता देश विरति, सर्वविरति गुणस्थान २. विमला अप्रमत्त गुणस्थान ३. प्रभाकरी अप्रमत्त गुणस्थान ४. अर्चिष्मती निवृत्ति बादर गुणस्थान ५. सुदुर्जया आठ से ग्यारहवां गुणस्थान ६. अभिमुक्ति सूक्ष्म संपराय ७. दूरंगमा । क्षीण मोह ८. अचला सयोगी केवली ९. साधुमती सयोगी केवली १०. धर्म मेघा समवसरण में स्थित तीर्थंकर जैसी अवस्था गुणस्थान आध्यात्मिक विकास के सोपान हैं । आत्मा मिथ्यात्व की पराधीनता से निकल कर किस प्रकार प्रगति-चरण से विकास की पराकाष्ठा पर पहुंचती है। आजीवक सम्प्रदाय३५ में आध्यात्मिक विकास की अवधारणाबुद्धघोष ने आजीवक सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास की आठ भूमिकाओं का उल्लेख किया है-मन्दा, खिड्डा, पदवीमांसा, ऋजुगत, शैक्ष, श्रमण, जिन, प्राज्ञ। इनमें पहली तीन अविकासकाल तथा पीछे पांच विकासकाल की अवस्थाएं हैं। उसके बाद मोक्ष है। आजीवक सम्प्रदाय का स्वतंत्र साहित्य और सम्प्रदाय नहीं, पर उनके आध्यात्मिक विकास सम्बन्धी विचार बौद्ध ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। योग दृष्टि समुच्चय में आचार्य हरिभद्र ने ८ दृष्टियों का विश्लेषण किया है। योग के संदर्भ में यह मौलिक चिन्तन है मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा एवं परा। दृष्टि का अर्थ है- ज्ञान, प्रकाश या बोध। जीव को कितने अंश तक बोध मिला है? कितना विकास हुआ है ? इसकी मापक हैं ये दृष्टियां। दृष्टियों की बोध ज्योति की तरतमता को उदाहरण से स्पष्ट किया है विकासवाद : एक आरोहण .२०७०

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