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योग विंशिका में विकासकालीन अवस्था के सूचक पांच साधनों का नामोल्लेख किया है- १ स्थान, २ उर्ण, ३ अर्थ, ४ आलंबन, ५ निरालंबन। वैदिक परम्परा में भी आध्यात्मिक विकास की काफी चर्चाएं हैं।
महर्षि पातंजलि ने विकास की नई व्यवस्थाएं दी जो अष्टांग योग के नाम से विख्यात हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि।
प्रो. रानडे ने आध्यात्मिक जीवन-विकास के लिये कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश डाला है१. जिज्ञासा का स्तर- जिज्ञासा का उद्भव हो अन्यथा आत्म-विकास की
भूमिका नहीं बनती। प्रथम कदम है- आत्मा को देखो। २. स्वयं का बोध-'विजानीयादहमस्मीति पुरुष' यह पुरुष मैं ही हूं। पिछले
स्तर से यह कुछ उन्नत स्तर है। इससे दृष्टि अन्तर्मुखी बनती है। ३. आत्मा से तादात्म्य-'अयमात्माब्रह्म' यह आत्मा ही ब्रह्म है। ब्रह्म भाव
की अनुभूति। इस क्रम से विकास की धारा वृद्धिंगत होती है। ४. मैं ही ब्रह्म हूं-'अहं ब्रह्मास्मि'। आत्मा ही ब्रह्म है। पांचवें स्तर पर (सर्व . खल्विदं ब्रह्म) सब-कुछ ब्रह्म है।
इस प्रकार जीव की आध्यात्मिक उत्क्रांति में सभी दर्शनों की आस्था रही है। आत्म-विकास के सारे पड़ाव, उत्थान-पतन की सभी प्रक्रियाएं गुणस्थानों से अभिव्यक्त होती हैं। उन्नति का आदि बिन्दु है-सम्यग्दर्शन। चरम बिन्दु मोक्ष है। संदर्भ-सूची १. महापुराण सर्ग ३ श्लोक १९।२०। २. प्रज्ञापना टीका सू. २३४। ३. गोम्मटसार जीव काण्ड गा. १८६। ४. दर्शन की रूपरेखा पृ. ५१। ५. वही, प. ५९। ६. सूत्रकृतांग सू. २ श्रुतस्कंध, अ. ४ सू. ८ । ७. तत्त्वार्थ वार्तिक, ९७।११।६०४।१७। ८. प्रमाण मीमांसा पृ. ४३ । ९. माठर का. २७। १०. भारतीय मनोविज्ञान पृ. १३६।
विकासवाद : एक आरोहण