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लीन रहता है। अनुत्साह का निरोध हो जाता है। इसमें अशुभ योग, अशुभ लेश्या, अशुभ ध्यान आदि रुक जाते हैं। इस गुणस्थान में भी 'अप-डाउन' होता रहता है। प्रमाद की तन्द्रा कभी अप्रमाद की जागृति, यह क्रम पुनः पुनः चलता है इसलिये दोनों गुण-स्थानों का परिवर्तन होता रहता है।
अप्रमत्त दो प्रकार के हैं- कषाय अप्रमत्त और योग अप्रमत्त। जिसका कषाय क्षीण है वह कषाय अप्रमत्त। जो मन-वचन-काया इन तीनों योगों से गुप्त है वह अप्रमत्त है। इस श्रेणी में कोई भी साधक एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहता।
निवृत्ति बादर गुणस्थान (New thought activity which the saint's soul had never before acquired.)
__ निवृत्ति से मतलब है- भेद। प्रस्तुत गुणस्थान में परिणाम विशुद्धि की भिन्नता होती है इसलिये इसे निवृत्ति बादर गुणस्थान कहा जाता है। इसमें आरोहण करने वाली आत्मा के परिणाम प्रतिक्षण अपूर्व ही होते हैं। यहां से आगे की यात्रा मोहनीय कर्म के क्षय या उपशम के माध्यम से निष्पादित होती है। क्षय के माध्यम से निष्पन्न आरोहण को क्षपक श्रेणी तथा उपशमन से निष्पन्न उपशम श्रेणी कहलाती है।
उपशम श्रेणी से बढ़ने वाले मोह को एक बार सर्वथा दबा लेते हैं, निर्मूल नहीं कर पाते। जिस प्रकार बर्तन में भरी हुई भाप कभी-कभी अपने वेग से या तो बर्तन को उड़ा देती है, या नीचे गिरा देती है। अथवा राख में दबी हुई अग्नि हवा का झोंका लगते ही अपना कार्य शुरू कर देती है। जल के तल में बैठा हुआ मल थोड़ा-सा हिलते ही पुनः उठकर जल को गंदा बना देता है, उसी प्रकार पहले दबाया हुआ मोह अपने वेग से साधक को नीचे पटक देता है। वह ग्यारहवां गुणस्थान है। अधःपतन का मार्ग है आठवें-गुणस्थान की उपशम
श्रेणी।
क्षपक श्रेणी प्रतिपन्न जीव मोह को क्षय कर दसवें से सीधा बारहवें में चला जाता है। वीतराग बन जाता है। क्षीण मोह वाले का अवरोह नहीं हो सकता।
ग्यारहवां गुणस्थान पुनरावृत्ति का है। बारहवां अपुनरावृत्ति का। किसी एक परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाला विद्यार्थी अपने परिश्रम एवं लगन से योग्यता बढ़ाकर पुनः उस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है। उसी प्रकार उपशम श्रेणी वाला •२०२०
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन