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अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। पूर्व-पूर्ववर्ती गुणस्थान की अपेक्षा पर परवर्ती गुणस्थानों में विकास की मात्रा बढ़ती जाती है।
विकास की न्यूनाधिकता क्यों रहती है ? इसका आधार है- आत्मा की स्थिरता, अन्तर्दृष्टि, स्वभाव रमण । स्थिरता के तारतम्य में दर्शन और चारित्र मोह का क्षायक क्षयोपशम निमित्त है।
२. सास्वादन गुणस्थान - ( Down fall from the fourth stage) सास्वादन ३२ का अर्थ है-स्वादयुक्त। जैसे किसी बर्तन में क्षीर डाली। उसके निकाल लेने पर भी कुछ स्वाद रह जाता है । अथवा झालर बजती है। बंद कर देने पर भी कुछ देर ध्वनि आती रहती है । वैसे ही सम्यक् दर्शन की रोशनी से जीव जब गिरता है फिर भी स्वाद रह जाता है इसलिये इसका सास्वादन नामकरण है।
यह अपक्रमण की अवस्था है । सम्यक्त्व की उच्च भूमिकाओं के राजमार्ग से पतित आत्मा जब प्रथम गुणस्थान के उन्मुख होती है। बीच में पतनोन्मुख आत्मा की जो अवस्था है वही दूसरा गुणस्थान है।
पहले गुणस्थान से इसमें आत्मशुद्धि कुछ अधिक होती है इसलिये इसे दूसरे नम्बर पर रखा है फिर भी ज्ञातव्य यह है कि इसे उत्क्रांति स्थान नहीं कह सकते। क्योंकि प्रथम भूमिका से उत्क्रांति करने वाला जीव सीधे तौर से दूसरे स्थान को प्राप्त नहीं कर सकता। ऊपर की भूमिका से गिरने वाला ही इसका अधिकारी होता है। इस समय आध्यात्मिक स्थिति विलक्षण होती है। उस समय आत्मा न तत्त्व ज्ञान की निश्चित भूमिका पर है न तत्त्व ज्ञान शून्य की निश्चित भूमिका पर । कोई सीढियों से खिसक कर जब तक जमीन पर आकर नहीं ठहर जाता, बीच में अलग ही स्थिति का अनुभव करता है । वैसी स्थिति सास्वादन की होती है।
३. मिश्र गुणस्थान - (Belief in Right or wrong at the same time) इसमें सम्यक् और मिथ्या दोनों दृष्टियों का मिश्रण है। दोलायमान स्थिति है। इसलिये मिश्रदृष्टि को गुणस्थान कहा जाता है । जैसे मिश्री एवं दही को संयुक्त करने पर श्रीखंड बन जाता है किन्तु उसका स्वाद न दही रूप है न मिश्री जैसा । तीसरा ही स्वाद होता है । वैसी ही इसकी अवस्था है।
प्रथम गुणस्थान से उत्क्रांति करने वाला सीधा तीसरे में आ सकता है और कोई चतुर्थ आदि गुणस्थान से अपक्रमण कर तीसरे में आ सकता है। इस. प्रकार उत्क्रांति और अपक्रांति दोनों का आश्रय स्थल है तीसरा गुणस्थान । जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
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