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इन्हें एक वस्त्र के उदाहरण से स्पष्ट समझ सकते हैं एक वस्त्र है जिसमें मल के अतिरिक्त चिकनाहट भी है। मल को दूर करना उतना कठिन नहीं जितना चिकनाहट को दूर करना। उदर का मल दूर करने के समान यथाप्रवृत्तिकरण है। चिकनाहट दूर करने वाले विशेष श्रम के समान 'अपूर्वकरण' है।
बचे हुए मल किंवा चिकनाहट दूर करने के समान ‘अनिवृत्तिकरण' है। राग-द्वेष की ग्रंथि का छेदन अत्यन्त दुष्कर है। यही संघर्ष की वास्तविक अवस्था है। मोह राजा के राजप्रासाद का यही द्वितीय द्वार है जहां सबसे अधिक शक्तिशाली अंगरक्षक तैनात हैं। इन पर विजय हो जाने पर मोह पर विजय पाना आसान है।
__ अपूर्वकरण की अवस्था में कर्म शत्रुओं पर विजय पाते आत्मा पांच प्रक्रियाएं करती है। स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुण-संक्रमण, अपूर्वबंध।
गुणश्रेणी कर्मों को ऐसे क्रम में रखना कि विपाक काल के पूर्व फलभोग किया जा सके।
गुण-संक्रमण-कर्मों की अवान्तर प्रकृतियों में रूपान्तरण जैसे-दुःखद वेदना को सुखद वेदना में।
अपूर्वबंध-क्रियमाण क्रियाओं के फलस्वरूप होने वाला बंध अल्पतर मात्रा में होना। अन्तरकरण की इस स्थिति में आत्मा दर्शन मोहनीय कर्म को तीन भागों में विभाजित करती है। सम्यक्त्व मोह, मिथ्यात्व मोह, मिश्र मोह।
सम्यक्त्व मोहनीय के दलिक शुद्ध, मिश्रमोहनीय के अर्ध शुद्ध और मिथ्यात्व मोहनीय के अशुद्ध।
पहले में सत्य के स्वरूप का दर्शन होता है। दूसरे में विकृत रूप से। लेकिन तीसरे में सत्य पूरी तरह आवृत रहता है। सम्यग्दर्शन के काल में आत्मा मिथ्यामोह और मिश्रमोह को सम्यक्त्व मोह में रूपान्तरित करता रहता है।
सम्यग्दर्शन की अन्तर्मुहूर्त की समय सीमा समाप्त होते ही तीन विभागों मे से किसी भी वर्ग की कर्म प्रकृति का उदय हो सकता है। यदि प्रथम उदय सम्यक्त्व मोह का होता है तो आत्मा विकासोन्मुख हो जाता है। लेकिन मिश्र मोह या मिथ्यात्व मोह का विपाक होता है तो आत्मा पुनः पतनोन्मुख हो जाता है। अगले विकास के लिये उसे पुनः ग्रन्थि भेद का पुरुषार्थ करना होता है।
दर्शन मोह का विनाश ही प्रथम गुणस्थान की समाप्ति है। साध्य की प्राप्ति से पूर्व जीव को एक के बाद दूसरी, दूसरी से तीसरी-ऐसी क्रमिक
विकासवाद : एक आरोहण
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