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इससे ग्रन्थि पर शल्यक्रिया३० की जाती है। ग्रंथिभेदन होते ही अभूतपूर्व निर्मलता बढ़ती है। यहीं से जीवात्मा की अन्तर्यात्रा प्रारंभ होती है। जीव का संकल्प ऊर्ध्वमुखी बनता है। उस समय अल्प स्थितिक कर्मो का बंध करता है। अनन्त गुणी निर्जरा होती है। कर्मभार से हल्का हो जाता है।
फिर अनिवृत्तिकरण, इसकी भी अन्तर्मुहुर्त स्थिति है। स्थिति के कई भाग व्यतीत हो जाते हैं। एक भाग अवशेष रहता है तब अन्तरकरण की क्रिया प्रारंभ होती है। इसका अर्थ है कि मिथ्यात्व मोहनीय कर्म जो उदयमान है उसके उन दलिकों को जो अनिवृत्तिकरण के बाद अन्तर्मुहूर्त तक उदय में आने वाले हैं उन्हें आगे-पीछे करना। अनिवृत्तिकरण के पश्चात का एक अन्तर्महूर्त काल ऐसा होता है जिसमें मिथ्यात्व मोहनीय का दलिक किंचित मात्र भी नहीं रहता। अतः जिस नवीन कर्म का अबाधाकाल पूर्ण हो चुका है ऐसे मिथ्यात्व मोहनीय के दो विभाग हो जाते हैं।
एक भाग अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय तक उदयमान रहता है। दूसरा भाग अनिवृत्तिकरण के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल व्यतीत होने तक उदय में आता है। प्रथम भाग को मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति, दूसरे भाग को दूसरी स्थिति कह सकते हैं।
अनिवृत्तिकरण का अंतिम समय पूर्ण हो जाता है तब मिथ्यात्व का किसी प्रकार उदय नहीं रहता, क्योंकि जिन दलिकों के उदय की संभावना है वे सभी दलिक अन्तःकरण क्रिया से आगे-पीछे कर दिये जाते हैं। अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय तक ही जीव मिथ्यात्वी रहता है। उसका समय संपन्न होते ही जीव को औपशमिक सम्यक्त्व उपलब्ध होती है। इसमें मोहनीय कर्म के प्रदेशोदय एवं विपाकोदय दोनों का अभाव हो जाता है।
___ जीव का स्वाभाविक सम्यक्त्व गुण प्रकट हो जाता है। अपूर्व आनंद की प्राप्ति होती है। यथाप्रवृत्तिकरण वासनाओं से संघर्ष करने के लिये पूर्व पीठिका तैयार करता है। जो आत्माएं कृत संकल्प हो राग-द्वेष रूपी शत्रुओं के व्यूह का भेदन करती हैं। भेदन की क्रिया अपूर्वकरण है। संघर्ष में विजयश्री प्राप्त कर आत्मा जिस आनन्द का अनुभव करती है वह विशिष्ट है। इस अवस्था में मानसिक तनाव और संशय पूरी तरह समाप्त हो जाते हैं। अपूर्व आनन्द का अनुभव अपूर्वकरण है।
आत्मा विकास की दिशा में अपना अगला चरण रखती है-यह प्रक्रिया अनिवृत्तिकरण है। इस भूमिका पर आत्मा शुद्ध स्वरूप का दर्शन करती है। यही सम्यग्दर्शन बोध की भूमिका है।
.१९८०
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन