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जीव और शरीर दो स्वतंत्र भूमिकाएं हैं। दोनों की अपनी-अपनी प्रभुसत्ताएं एवं परिधियां हैं। दोनों के बीच की सीमारेखा का बोध ही साधना सिंहद्वार है ।
अन्तश्चेतना के दो स्तर हैं- विकल्प एवं अनुभूति । विकल्प - जाल में फंसी चेतना को आत्म-बोध नहीं होता। इससे बाहर निकलने पर ही स्वरूप की अनुभूति कर सकती है। यही सम्यग्दर्शन है । अध्यात्म का प्रथम चरण सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्ज्ञान का सहचारी सम्बन्ध है । सम्यक् ज्ञान मोक्ष-कल्पतरु का बीज है। सम्यग्दर्शन नींव है। सम्यक् चारित्र समीचीन जीवन शैली है। अग्नि में प्रकाश, दाहकता, पाचकता तीन गुणों का समवाय है वैसे ही मोक्ष प्राप्ति में तीनों का समन्वय जरूरी है।
तत्त्व के प्रति श्रद्धा जब सहज एवं स्वाभाविक ढंग से बिना किसी प्रयास के उत्पन्न होती है तब उसे निसर्गज कहते है । जब श्रद्धा उपदेशादि बाह्य निमित्त से उत्पन्न होती है तब उसे अधिगमज कहते हैं ।
आध्यात्मिक क्षेत्र में ज्ञान - क्रिया का द्वैत मिट जाता है। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। साक्षात् की प्रक्रिया चारित्र है।
चारित्र के दो रूप हैं - व्यवहार चारित्र, निश्चय चारित्र । विधि-विधान रूप आचार का बाह्य पक्ष व्यवहार चारित्र है । इसका सामाजिक जीवन से भी सम्बन्ध है। नैतिक विकास का यह मानदंड भी है ।
चारित्र का भाव पक्ष है- निश्चय चारित्र । निश्चय चारित्र का आधार - अप्रमत्त चेतना, राग-द्वेष से मुक्त चेतना ।
सम्यक् चारित्र के अन्य दो पक्ष हैं- देश चारित्र, सर्व चारित्र । देश चारित्र का सम्बन्ध गृहस्थ उपासकों से है। सर्व चारित्र के अधिकारी हैंश्रमण-निर्ग्रन्थ |
बौद्ध दर्शन में सम्यक् चारित्र के स्थान पर शील शब्द का प्रयोग हुआ है। शील का तात्पर्य है - कुशल धर्मों का आधार । विशुद्धि मार्ग में चार प्रकार के शीलों का उल्लेख है - चेतना शील, चैतसिक शील, संवर शील, अनुल्लंघन शील।
जैन दर्शन २१ में चारित्र के पांच प्रकार हैं- सामयिक, छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्ध, सूक्ष्म संपराय, यथाख्यात । श्रमणों के लिये जिनकल्पी, विकासवाद : एक आरोहण
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