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स्थविरकल्पी, आदि भूमिकाएं हैं। श्रावकों के लिये सुलभ बोधि, सम्यग्दृष्टि, प्रतिमाधारी आदि।
ज्ञान से आत्मा के निरावरण स्वरूप का बोध होता है परन्तु उस आवरण को तोड़ने की क्षमता चारित्र में है। ज्ञान निर्णायक है पर गतिशील नहीं। चारित्र गतिशील है। आध्यात्मिक रत्नत्रयी की साधना पर आधारित है। इसकी जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट आराधना करने वाले संसार से मुक्त हो मोक्षगामी बनते हैं। चेतना के विकास की विभिन्न अवस्थाएं
__ चेतना के क्रमिक विकास के सोपानों का जैन दर्शन में गुणस्थान के रूप में निरूपण है। आत्मा की नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्क्रांति की यात्रा को गुणस्थानों की पद्धति द्वारा व्यवस्थित तरीके से स्पष्ट किया है। गुणस्थान एक तार्किक व्यवस्था है। शुद्धिकरण का क्रम है। गुणस्थान जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। उसका सम्बन्ध आत्मा की क्रमिक विशुद्धि से है।
गुणस्थान शब्द उत्तरवर्ती साहित्य में प्रसिद्ध है। आगम साहित्य में 'जीव-स्थान' शब्द का प्रयोग है।
समवायांग में चौदह भूतग्राम या जीवस्थान कहा है। कर्म ग्रन्थ२२ में गुणस्थान शब्द से अभिहित किया है। समयसार२३ में आचार्य कुंदकुंद ने यही शब्द काम में लिया है। तत्त्वार्थ सूत्र में गुणस्थान शब्द का प्रयोग नजर नहीं आता। गोम्मटसार२४ में 'जीव-समास' नाम है। धवला के अनुसार२५ जीव गुणों में रहने के कारण जीव-समास कहा है। किन्तु जीवस्थान, जीव-समास या गुणस्थान में सिर्फ संज्ञा भेद है। अर्थभिन्नता नहीं।
गुणस्थान की अवधारणा का मुख्य आधार है-कर्म विशोधि। समवाओ में कहा है-कम्म विसोही मग्गणं पडुच्च चउदस जीवठाणा पण्णत्ता।
अज्ञानमय अंधकारपूर्ण गलियारे से आत्मा जब बाहर निकलती है। धीरेधीरे अपने अस्वाभाविक गुणों के आधार पर उत्क्रांति करती हुई विकास की पराकाष्ठा पर पहुंचती है। यही परम साध्य है।
साध्य की प्राप्ति से पूर्व जीव को क्रमिक अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। इसे उत्क्रांति मार्ग कहते हैं। जीव-विकास में शरीर, इन्द्रिय आदि के विकास की चर्चा है। मानसिक विकास में मन तथा उसके विकास की
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-जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन