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प्रक्रियाएं हैं। नैतिक विकास की भूमिका पर जीव से सम्बन्धित नैतिक विधिनियमों का विवेचन है। आध्यात्मिक विकास का सम्बन्ध आत्मा की विशुद्धता से है।
संसार में जीव-राशि अनंत है। सभी जीवों की शारीरिक संरचना, इन्द्रिय, विचार-शक्ति, मनोबल तथ चारित्र एक-दूसरे से भिन्न हैं। यह भेद कर्मजन्य, औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक तथा पारिणामिक भावों पर आधारित है। भिन्नता इतनी विचित्र है कि सारा संसार मानो एक अजायबघर-सा प्रतीत होता है। अनन्त भिन्नताओं को चौदह विभागों में विभाजित किया है।
गुणस्थानों का वर्गीकरण, आत्मानुसंधान एवं आत्म-विकास की प्रांजल वैज्ञानिक प्रक्रियाएं हैं। इस वर्गीकरण में प्रथम अवस्था से लेकर चरम अवस्था तक सोपानों का एक महत्त्वपूर्ण अनुक्रम (सीक्वेन्स) है। मोह कर्म की उत्कर्षता-मंदता एवं अभाव पर विकास की क्रमगत कल्पना (Gradation) आधारित है।
साधक का लक्ष्य आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करना है। इस लक्ष्यपूर्ति के लिये उसे साधना की विभिन्न भूमिकाएं पार करनी होती हैं। वे भूमिकाएं साधना की मापक हैं। विकास मध्य अवस्था है। उसके एक तरफ अविकास की स्थिति है। दूसरी ओर पूर्ण विकास की। इस आधार पर आत्मा की तीन अवस्थाओं का विवेचन है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा।
चौदह गुणस्थानों में पहले से तीसरे तक बहिरात्मा है। चौथे से बारहवें तक अन्तरात्मा, शेष दो गुणस्थानों में आत्मा के परमात्मा स्वरूप का चित्रण है। गुणस्थानों में बहिरात्मा से अन्तरात्मा, अन्तरात्मा से परमात्मा तक की यात्रा है।
आत्मा निर्विकार है फिर भी उसे पतन-उत्थान की प्रक्रिया से क्यों गुजरना पड़ता है ? विकास की न्यूनाधिकता क्यों रहती है ? इसका आधार है-कर्म। आत्मा के यथार्थ स्वरूप को आवृत कर रहे हैं उन कर्मों में प्रधान कर्म है-मोह। मोह को पोषण दो तत्त्व-राग-द्वेष से मिल रहा है। राग-द्वेष कषाय मूलक हैं। मोह का विलय होते ही अन्य कर्मों के आवरण हटाने में सुगमता हो जाती है। मोह के दो विभाग हैं-दर्शन मोह और चारित्र मोह। दर्शन मोह स्व-स्वरूप के यथार्थ बोध का बाधक है। चारित्र मोह से यथार्थ
विकासवाद : एक आरोहण
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