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'मिथ्या नाम विपरीत भावः मिथ्याभाव: ' मिथ्यात्वी व्यक्ति की स्थिति काच - कामली रोगग्रस्त व्यक्ति जैसी होती है जिसे सब कुछ पीला ही पीला नजर आता है। वस्तु का मूल रूप दिखाई नहीं देता। मिथ्यात्व का असर ऐसा
होता है, किन्तु तरतमता अवश्य है। तीव्रता - मन्दता के क्रम से काफी अन्तर होता है। तीव्रातितीव्र, अतितीव्र, तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर, मन्दतम, शुद्ध, इस प्रकार चढ़ते-उतरते क्रम से मिथ्यात्व के कई भेद हो सकते हैं। भिन्न-भिन्न कक्षाएं हैं। जैसे - काला रंग, उसके कई प्रकार । कौआ, कोयल और भ्रमर तीनों काले हैं किन्तु कालेपन की मात्रा का अंतर है।
१००% काला
२
c0% ६०% ४०%
काला काला
काला
रंग
५
२०%
काला
90%
काला
५%
काला
सम्पूर्ण
शुद्ध
जैसे-गांव से बड़ा तालुका होता है फिर क्रमशः जिला, शहर, राज्य, देश और विश्व। उलटे क्रम में विश्व, देश, राज्य आदि। यहां ज्ञान का तारतम्य है वैसे मिथ्यात्व में भी ।
प्रश्न उठता हैं, मिथ्यात्व को गुणस्थान क्यों कहा ? शास्त्रीय आधार पर समाधान यह है कि मिथ्यात्व का प्रगाढ उदय होने पर भी सामान्य सत्यांश बोध हर प्राणी में रहता ही है। यह मनुष्य है। पशु है। जड़ है। दिन है। रात है। इतना ज्ञान विद्यमान है।
सव्व जीवाणमक्खरस्स अनंतमो भागो निव्वमुघाडीओ चिट्ठई | जइ पुण सोवि आवरिज्जातेणं जीवो अजीवत्तणं पाउणिज्जा ।।
निगोद का छोटा जीव हो या बड़ा, जीव मात्र में ज्ञान का अनन्तवां भाग भी निश्चित अनावृत होता है। यदि ऐसा न हो तो जीव- अजीव बन जायेगा । कितना ही दृष्टि का विपर्यास हो, उसमें अल्पतम या अव्यक्त मात्रा में सही, यथार्थ श्रद्धा और विधायक गुणों का विकास मिलेगा, क्योंकि वह आत्मा का स्वभाव है। जीव का अस्तित्व उसके ज्ञानादि गुणों के कारण है। इस प्रकार सामान्य आंशिक बोध में आंशिक सत्य भी मिथ्यात्व की कक्षा में रहता है। इस गुण के आधार पर उसे मिथ्यात्वी गुणस्थान कहा है।
दूसरा कारण, जीव की विकास यात्रा इसी गुणस्थान से प्रारंभ होती है। सम्यक्त्व प्राप्ति के लिये सारा पुरुषार्थ मिथ्यात्व के सदन में रहकर ही करना है । यथाप्रवृत्तिकरण भी यहीं प्राप्त करना है। टेस्ट मेच तो खेलेगा तब खेलेगा विकासवाद : एक आरोहण
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