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बाहर भावनाएं आदि महाव्रतों के परिपोषक हैं। जैन सूत्रों में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु-ये साधना की भूमिकाएं हैं। अशुभ से निवृत्ति, शुभ में प्रवृत्ति ही नैतिक विकास का सच्चा मार्ग है। आत्म-विकास एवं आत्मोन्नति की समृद्धि का मानदण्ड है ।
आध्यात्मिक विकास क्रम
जीवन का अस्तित्व धरातल पर करीब एक अरब वर्षों से माना जाता है। सर्वप्रथम सरल एककोषीय जीव के रूप में, फिर क्रमशः गति करते हुए उच्चतम शिखर पर मनुष्य के रूप में आता है। युगों से चली आ रही इस प्रक्रिया का नाम दिया- विकास । क्रमिक और व्यवस्थित ढंग से रूपान्तरण होना ही विकास का सिद्धांत है ।
जीवगत विकास अनेक तरीकों से होता है क्योंकि जीव की अनेक अवस्थाएं हैं- पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक आदि। ये सब संसार के व्यवहार हैं। अनेक क्षेत्रों, कार्यों, विषयों में अनेक प्रकार के विकास होते हैं। ये सब व्यवहार की सीमा में हैं । व्यवहार से संसार सुचारु और व्यवस्थित चलता है किन्तु अध्यात्म का विकास न हो तो सब अधूरे हैं।
अनादिकाल से वासनाजन्य संसार में जीव कर्म संपृक्त होकर वैभाविक पर्यायों से प्रभावित है। विभाव रूप पर्याय से स्व-स्वभाव में अवस्थित हो जाना, यहीं से आध्यात्मिक विकास की यात्रा प्रारंभ होती है।
अध्यात्म का अर्थ है- भीतर का विकास, स्वयं की खोज, अस्तित्व का निर्णय | जड़-चेतन रूप पदार्थ की समीक्षा । निजत्व की अनुभूति और प्रयत्न | अध्यात्म का क्षेत्र गहन है जहां जीव को अकेले ही यात्रा करनी है ।
आध्यात्मिक विकास का सम्बन्ध इन्द्रिय और मन से नहीं, चेतना से है । चेतना का आभ्यन्तरीकरण उसकी विकास यात्रा है। अध्यात्म के परिवेश में वही प्रविष्ट हो सकता है जो मोह के आक्रमण - प्रत्याक्रमण को चुनौती दे सके।
अध्यात्मसार २१८ एवं अध्यात्मोपनिषद ९ में अध्यात्म का स्वरूप निर्देशित है। शुद्ध आत्मा में विशुद्धता का आधारभूत अनुष्ठान अध्यात्म है।
अध्यात्म-विकास समत्व से अनुप्राणित है। अध्यात्म का प्राण तत्त्व हैराग-द्वेष एवं कषाय से मुक्ति, वीतराग स्थिति की प्राप्ति । जीव की अनादिकालीन यात्रा यहीं समाप्त होती है।
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जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन