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भारतीय और पाश्चात्य चिंतन, दोनों में अंतर इतना ही है, भारतीयों का परमश्रेय निर्वाण या आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति है। पाश्चात्य विचारधारा में परमश्रेय व्यक्ति एवं समाज का भौतिक अभ्युदय है। भारतीय विचारधारा व्यक्तिपरक रही है एवं पाश्चात्य विचारधारा समाजपरक है। किन्तु गहराई से चिंतन किया जाये तो पश्चिम में ब्रैडले आदि कुछ आध्यात्मिक विचारकों ने नैतिक साध्य के रूप में जिस आत्म पूर्णता एवं आत्म साक्षात्कार के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है वह भारतीय आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक निकट है। इसी प्रकार भारतीय चिंतकों ने भी जीवन के भौतिक पक्ष की पूरी तरह से अवहेलना नहीं की है किन्तु निर्वाणलक्षी अधिक है।
जैन दर्शन के अनुसार जीव के नैतिक विकास की प्राथमिक शर्त हैयथार्थ बोध, यथार्थ ज्ञान एवं यथार्थ आचरण। तीनों का समन्वय नैतिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। जैन दार्शनिक शंकर के समान न ज्ञान से मुक्ति मानते हैं, न रामानुज आदि की तरह केवल भक्ति को। मीमांसा दर्शन की तरह कर्म से भी मुक्ति नहीं मानते किन्तु तीनों का समन्वित रूप ही मोक्ष का हेतु है।
पाश्चात्य परम्परा में तीन नैतिक आदेश उपलब्ध होते हैं-१ स्वयं को जानो (Know Thyself) २ स्वयं को स्वीकार करो (Accept Thyself) ३ स्वयं ही बन जाओ (Be Thyself)। तीनों नैतिक आदेश ज्ञान, दर्शन और चारित्र के समकक्ष ही हैं।
जैन नीति का उद्घोष है-स्वयं को जानो। उपनिषदों में नीति का महत्त्वअपने आप को पहचानो के रूप में प्रतिपादित है।
यथार्थ तत्त्व बोध नैतिक विकास की नींव है। यथार्थ दृष्टिकोण से जीवन का व्यवहार एवं साधनापक्ष सम्यक् हो सकता है। सम्यक् दर्शन आध्यात्मिक विकास का प्राण है। जैन आचार परम्परा में नैतिक विकास के मानदण्ड स्वरूप दो वर्ग हैं-श्रमण वर्ग और श्रावक वर्ग। ___ श्रावक शब्द में प्रयुक्त तीन अक्षरों की विवेचना इस प्रकार है-श्र-श्रद्धा, व-विवेक, क-क्रिया अर्थात् जो श्रद्धा और विवेक से युक्त आचरण करता है वह श्रावक है। जैन आगमों में केवल गृहस्थ के लिये श्रावक शब्द का प्रयोग किया जाता है वहां बौद्ध दर्शन में गृहस्थ और श्रमण दोनों प्रकार के साधकों के लिये श्रावक शब्द का प्रयोग है।
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जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन