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साधना के स्तरों पर गृहस्थ की भूमिका विरताविरत की है। उनके जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का समन्वय है । पाप प्रवृत्ति से कुछ निवृत्ति और कुछ अनिवृत्ति होना ही विरताविरत अवस्था है।
जैन दर्शन निवृत्तिपरक है। लेकिन गृहस्थ जीवन में समग्र रूप से निवृत्त हो जाना हर व्यक्ति के लिये सुलभ नहीं है। अतः निवृत्ति की दिशा में बढ़ने के लिये विभिन्न पद्धतियों का आविष्कार हुआ है जिनसे व्यक्ति क्रमशः अपना नैतिक विकास करता हुआ साधना के चरम उत्कर्ष को प्राप्त कर सके। साधना के विकास क्रम में श्रावक के बारह व्रतों का सुन्दर चित्रण है। नैतिक विकास के इन सोपानों पर आरोहण करने वाला श्रावक एक दिन विकास के चरम शिखर पर होता है जहां नैतिक विकास के उत्कर्ष की समतल भूमि मिलती है।
दूसरे वर्ग में श्रमण है। जैन और बौद्ध परम्परा में श्रमण जीवन को प्रधान माना है। वैदिक धर्म में गृहस्थ जीवन का विशेष महत्त्व है। बाद में श्रमण परम्परा के प्रभाव से उसमें भी श्रमण जीवन को समुचित स्थान मिल गया ।
श्रमण जीवन का तात्पर्य श्रमण शब्द की व्याख्या से ही स्पष्ट हो जाता है । प्राकृत में श्रमण का 'समण' रूप है। संस्कृत में समण के तीन रूपान्तर है - श्रमण, समन, शमन ।
१. श्रमण - श्रम धातु से निष्पन्न है। इसका अर्थ है- जो व्यक्ति अपने आत्म-विकास के लिये परिश्रम करता है ।
२ समन - शब्द के मूल में सम् है जिसका अर्थ है समत्व भाव। जो सभी प्राणियों को अपने समान समझता है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखता है ।
३ शमन- शब्द का अर्थ है अपनी वृत्तियों को शांत रखना ।
वस्तुतः श्रमण शब्द का मूल तात्पर्य समत्वभाव की साधना ही है । महावीर ने कहा- केवल मुण्डित होने से श्रमण नहीं होता । समत्व की साधना करने वाला श्रमण होता है। १७
श्रमण का जीवन एक उच्चस्तरीय नैतिकता एवं आत्मसंयम का जीवन है। श्रमण संस्था में प्रविष्ट होने के लिये आचार-संहिता अनिवार्य है। अहिंसा, सत्य आदि पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति- ये तेरह नियम सार्वभौम हैं, आध्यात्मिक विकास के साधक तत्त्व हैं तथा नैतिक विकास की अंतिम मंजिल हैं। परिपूर्ण नैतिक विकास इन व्रतों से ही संभव है। दस यति धर्म, परीषह जय, विकासवाद : एक आरोहण
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