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बौद्धिक स्तर पर चिंतन हुआ है। पाश्चात्य मनोविज्ञान के अनुसार मन कोई विशेष अंग या इन्द्रिय नहीं किन्तु वृत्तियों, ज्ञान एवं निर्णयों आदि के समूह का नाम है। मनस एक क्रिया है । १२
भौतिकवादी मन की कोई स्वतंत्र सत्ता मान्य नहीं करते। उनके अभिमत से मानव-देह की रचना ही ऐसी है कि उद्दीपक (Stimulus) के उपस्थित होने पर अनुक्रिया (Response) अपने आप हो जाती है । उद्दीपन क्रिया तथा अनुक्रिया का संचालन तंत्रिका तंत्र (Nervous system) से होता है। बाहरी ज्ञान को भीतर मस्तिष्क तक ले जाने वाली संवेदन तंत्रिकाएं (Sensory Nerves) कहलाती हैं।
वापस संदेश ले आने वाली तंत्रिकाएं प्रेरक तंत्रिकाएं (Moter Nerves) हैं। ये सारी क्रियाएं मस्तिष्क से सम्बन्धित हैं, मन से नहीं । मन भी भौतिक है।
भौतिकवादी लोगों के विचार से जो कुछ घटित होता है वह पहले शरीर में। मन उसका अनुभव करता है । मन सिर्फ शरीर में क्रिया-कलाप की नोट लेता है । उसका संचालन नहीं करता । अतः भौतिकवादी भी मन के स्वरूप का स्वस्थ चिंतन दे नहीं सके । यदि तंत्रिका तंत्र द्वारा शरीर की संचालन क्रिया मान लें तो भी समस्या का समाधान नहीं मिल सकता। मस्तिष्क की क्रिया केवल यातायात की क्रिया है । संदेश आता है। वापस आदेश प्रसारित कर दिया जाता है किन्तु मस्तिष्क में चुनाव (Choice) की क्षमता नहीं है ।
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अध्यात्मवादी मन को अभौतिक तत्त्व मानते हैं जो शरीर के कार्यालय में बैठकर उसकी गतिविधि का नियंत्रण करता है । मन दो प्रकार का है - द्रव्य मन, भाव मन । द्रव्य मन, अंगोपांग नामकर्म के उदय का परिणाम है। भावमन वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम है। भावमन ज्ञान रूप है। मानसिक क्रियाएं इसी में घटित होती हैं । भावमन १४ का अस्तित्व प्राणी मात्र है किन्तु द्रव्यमन के अभाव में वह ज्ञात नहीं होता । द्रव्यमन अजीव है। भावमन जीव है । द्रव्यमन पौद्गलिक होने से शरीरव्यापी है । इन्द्रिय ज्ञान के साथ मन का साहचर्य है। यह भी शरीरव्यापीत्व का प्रमाण है। क्योंकि स्पर्श इन्द्रिय शरीरव्यापी है। उसे अपने ज्ञान में मन का सहयोग लेना पड़ता है।
योग परम्परा में इसका संवादी प्रमाण है-यत्र पवनस्तत्र मनः । जहां पवन है, वहां मन है । पवन पूरे शरीर में है, मन भी शरीरव्यापी है।
विकासवाद : एक आरोहण
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