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डारविन की विचारधारा इससे भिन्न है। उसने शारीरिक परिवर्तन के आधार पर क्रम विकासवाद को प्रतिष्ठित किया। शरीर परिवर्तन के साथ वर्ण, संहनन, संस्थान भेद तथा लम्बाई-चौड़ाई, सूक्ष्म-स्थूल आदि होते हैं। उनमें देश, काल एवं परिस्थिति भी निमित्तभूत है।
उत्पत्ति स्थान एवं कुल-कोटि की भिन्नता से जो विविधता है उसे विकासवादियों ने जाति की संज्ञा से अभिहित किया है।
जैन दर्शन की मान्यता है-जीव जिस जाति में जन्म लेता है उस जाति में प्राप्त गुणों का विकास कर सकता है। जाति के विभाजक नियमों का अतिक्रमण नहीं होता। जैसे एकेन्द्रिय में ४ पर्याप्ति और ४ प्राण होते हैं। तीन अज्ञान हैं।
दो इन्द्रिय वाले जीवों में पर्याप्ति ५, प्राण ६ और उपयोग ५ हो जाते हैं। इन्हें बदला नहीं जा सकता, एकेन्द्रिय का द्वीन्द्रिय में, और द्वीन्द्रिय का एकेन्द्रिय में। एक दृष्टि से ये शाश्वत गुणांकन क्रायटेरिया (Criteria) है।
इस आधार पर योनिभेद से शारीरिक भिन्नता हो सकती है। किन्तु जातिगत भिन्नता नहीं। इन्द्रियों के विकास के साथ उत्तरोत्तर प्राण, पर्याप्ति, वेद, लिंग आदि का विकास होता है। जीव-विकास का सिद्धांत
प्राणी जगत् में विभिन्न जातियां हैं। विकासवाद के अनुसार सृष्टि के आदि में मनुष्य जाति नहीं थी। प्रश्न होता है, मनुष्य का विकास कैसे हुआ ? डारविन और लैमार्क इसका समाधान तीन नियमों से करते हैं।
१. अस्तित्व संघर्ष (Struggle for existance) २. आकस्मिक भेद (The Principle of chance variation) ३. वंश-सिद्धांत (The Principle of Heredity)
अस्तित्व संघर्ष-अपना अस्तित्व टिकाने के लिये जो संघर्ष होता है उसमें शक्तिशाली प्राणी विजयी और शक्तिहीन पिछड़ जाते हैं। डारविन के अभिमत से अस्तित्व का संघर्ष प्रारंभ से शुरू हो जाता है। जीवन के संघर्ष में वही प्राणी जीवित और बचा रहता है जो क्षमता की दृष्टि से सबसे श्रेष्ठ होता है। जो ज्यादा शक्तिशाली और बुद्धिमान है वह दुर्बल को नष्ट कर देता है तथा स्वयं जीवित रहता है। जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को निरस्तित्व कर देती है। .१८२
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन