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श्याओं के नामकरण का आधार वर्ण (Colour) है। हिंसा करने वाले कृष्णवर्णी परमाणुओं को आकृष्ट करते हैं क्रोधी व्यक्ति लाल रंग के परमाणुओं को। रस, गंध, स्पर्श का भी प्रभाव होता है । किन्तु वर्ण का प्रभाव विशेष है।
उत्तराध्ययन में लेश्या के सम्बन्ध में ११ प्रकार से चिन्तन किया गया है - नाम, वर्ण गंध, रस, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति एवं आयु आदि । लेश्या की शुद्धि होने पर जाति - स्मृति ज्ञान की उपलब्धि होती है। जिस लेश्या में मृत्यु होती है उसी में जन्म। जन्म - - पुनर्जन्म का सम्बन्ध वर्ण के साथ है।
जैन दर्शन की तरह जैनेतर दर्शन में भी लेश्या के तुल्य वर्णन देखने को मिलता है। दीघनिकाय में छह अभिजातियों का उल्लेख है
१. कृष्णाभिजाति-क्रूरकर्मी जीवों का समूह।
२. नीलाभिजाति-बौद्ध श्रमण तथा क्रियावादी - कर्मवादी भिक्षुओं का समूह ।
३. लोहिताभिजाति - एक शाटक निर्ग्रन्थों का समूह ।
४. हरिद्राभिजाति - श्वेतवस्त्रधारी या निर्वस्त्र लोगों का वर्ग ।
५. शुक्लाभिजाति - आजीवक श्रमण - श्रमणी वर्ग ।
६. परम शुक्लाभिजाति -आजीवक आचार्य, सांस्कृत्य मस्करी, गोशालक
प्रभृति का समूह।
तथागत बुद्ध ने कर्म एवं जाति के आधार पर अभिजातियों का निरूपण किया है। पूरण काश्यय" ने अभिजातियों में रंगों को आधार बनाया है। प्रस्तुत वर्गीकरण में मानसिक, वाचिक एवं कायिक दुश्चरण को कृष्णकर्म एवं सुचरण को शुक्लकर्म कहा है। इस वर्गीकरण का सम्बन्ध समूह से है। जैन दर्शन की लेश्याओं का सम्बन्ध व्यक्ति से है।
महाभारत६१ में इस प्रकार प्राणियों के वर्ण छह प्रकार के माने हैं
१.
२. धूम्र
कृष्ण
३.
8.
५.
६.
नील
हारिद्र
रक्त
शुक्ल
पुनर्जन्म : अवधारणा और आधार
सबसे कम सुख
उनसे अधिक सुखी
मध्यम सुखी
सुखी
सुख-दुःख सहने योग्य
परम सुखी
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