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को समझने का प्रयास किया जा रहा हैं। कैसे विचारों का, किस प्रकार फल मिलता है। उमास्वाति ने तत्वार्थ सूत्र में इसका विस्तार से विश्लेषण किया है। इन तथ्यों की पुष्टि वैज्ञानिक प्रयोगों से हो रही है।
जैन कर्म सिद्धांत की ६ अवधारणाएं
१. कर्म आत्मिक नहीं, पौद्गलिक है।
२. कर्म परमाणु सूक्ष्म और चतुःस्पर्शी है।
३. कर्म प्रायोग्य पुद्गल ही कर्म रूप में परिणत होते हैं।
४. कर्म के लिये सभी प्रकार के पुद्गल काम नहीं आते, उनकी वर्गणाएं पृथक् हैं।
५. कर्म आत्मा का आवरण, परतन्त्रता और दुःख का कारण है । ६. कर्म अनन्त परमाणुओं के स्कंध हैं।
विज्ञान प्रत्येक परमाणु में एक नाभिक मानता है। भारी और अस्थिर परमाणु के नाभिक में न्यूट्रॉन तथा प्रोटॉन के अतिरिक्त अन्य कई छोटे कण और होते हैं। इन कणों की स्वयं अपनी ऊर्जा है। वे स्वयं नाभिक से बाहर निकलना चाहते हैं। लेकिन यदि नाभिक का Potential Berrier कण की ऊर्जा से अधिक है तो वह उससे बाहर नहीं निकल सकता। यदि नाभिकीय बाधा को पार करने जितनी अतिरिक्त ऊर्जा उसे प्राप्त हो जाती है तो वह बाहर निकल जाता है। यही स्थिति भाग्य - पुरुषार्थ की है।
कर्मों की बाधा नाभिकीय बाधा से कुछ भिन्न है । कर्मों की स्थिति-शक्ति सदा एक सी नहीं रहती है, वह समय के साथ-साथ बदलती रहती है। नाभिकीय बाधा का सम्बन्ध मात्र जड़ पुद्गल से है जबकि कर्मों का सम्बन्ध जड़ तथा चेतन दोनों से है।
यदि पुरुषार्थ प्रबल है तो प्रतिकूल कर्मों की शक्ति कम है, कार्य की सिद्धि होगी । पुरुषार्थ कमजोर है और प्रतिकूल कर्मों की शक्ति अधिक है तो कार्य की सफलता संभव नहीं है। पुरुषार्थ का शस्त्र तीखा किया जाये। संभव है पुरुषार्थ स्वयं प्रतिकूल कर्मों के लिये चुनौती खड़ी कर देगा। जिससे कर्म अपना प्रभाव दिखाये बिना ही निष्प्रभ हो जायेंगे।
आत्मा किसी रहस्यमय शक्तिशाली व्यक्ति के अधीन नहीं है। न किसी दरवाजे पर दस्तक देने की अपेक्षा है। कर्मवाद के अनुसार आत्मा सर्वोच्च कर्मवाद, उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
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