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सूक्ष्म शरीर और आत्मा का सम्बन्ध अपश्चानुपूर्वी है। सूक्ष्म शरीर के कारण ही स्थूल शरीर का परावर्तन होता रहता है । जन्म-मरण की परम्परा का यह संवाहक है ।
जैनागमों के आधार पर मनुष्य तो क्या वृक्षों का भी पुनर्जन्म होता है। वृक्ष मर कर मनुष्य बन सकता है। इस संदर्भ में रोचक संवाद उपलब्ध है । २३
गौतम ने महावीर से पूछा- भंते! सूर्य की सख्त गरमी से पीड़ित, प्यास से व्याकुल दावानल की ज्वाला में झुलसा हुआ शालवृक्ष सूखने के बाद कहां पैदा होगा ?
महावीर ने उत्तर दिया- गौतम ! यह राजगृही में पुनः शालवृक्ष के रूप में उत्पन्न होगा। वहां अर्चित, वंदित, पूजित, सत्कृत, सम्मानित होगा। वहां से मरकर महाविदेह में मनुष्य का जन्म ग्रहण करेगा ।
एक और विस्मयकारी तथ्य उद्घाटित होता है कि मां के गर्भ में गर्भकाल के अन्तर्गत यदि कोई भ्रूणगत जीव मर जाता है तो मृत कलेवर में उसी भ्रूण का जीव पुनः जन्म ले लेता है। इस प्रक्रिया को जैन चिंतन में 'काय भवस्थ पुनर्जन्म २४ कहा है।
पुनर्जन्म : अस्तित्व के आधार बिन्दु
विराट विश्व के रंगमंच का खिलाड़ी जीव अनादिकाल से अपना अभिनय प्रदर्शित कर रहा है। एक परमाणु जितना स्थान भी अछूता नहीं, जहां जन्म-मृत्यु की क्रिया नहीं हुई हो। एक-एक जन्म के पीछे अनंत अनंत कर्म हैं। उनका फल भुगतान पुनर्जन्म के बिना संभव नहीं है । यह सर्वमान्य सच्चाई है।
माता-पिता के भिन्न स्वभाव वाली संतानों की उत्पत्ति पुनर्जन्म का प्रमाण है। पिछले जन्म में किये कर्म के फल रूप पुनर्जन्म का होना अनुमान प्रमाण है बीज-फल न्याय की तरह । वृहदारण्यक में लिखा है -मृत्यु के पश्चात तुरंत जीव दूसरे शरीर में वैसे ही जन्म लेता है जैसे तृणों पर रहने वाला कीड़ा एक तृण को छोड़ दूसरे पर जाता है।
जातक ग्रन्थ में उल्लेख है कि मृत्यु की घड़ी में ही अगले जन्म की कुंडली तैयार हो जाती है। वेद २५, उपनिषद २६, स्मृति २७, गीता २८ और जैन-बौद्ध साहित्य में पुनर्जन्म के संवादी तथ्य ९ उपलब्ध हैं। जैसे
जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
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