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मृत्यु शरीर की होती है या इसमें रहने वाले चेतन 'अहं' की? वे छत पर उत्तान लेट गये। पूर्ण शिथिलीकरण कर दिया। द्रष्टा बन कर देखते रहे कि मृत्यु शरीर को मार सकती है। आत्मा अविनश्वर है। इसे जलाया नहीं जा सकता। आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है।
उत्तर मीमांसा४३ में कहा है- "हम प्रत्यक्ष देखते हैं और शब्द प्रमाण से भी यही विदित होता है कि मृत्यु निकट आने पर, वाणी मन में स्थित हो जाती है। व्यक्ति में बोलने की शक्ति नहीं रहती परन्तु उसका मन काम करता है। इसके बाद मन प्राण में स्थित हो जाता है। उस समय मन काम नहीं करता किन्तु जीवन क्रिया चालू रहती है। प्राणी सांस लेता है। उसका हृदय तथा अन्य अंग काम करते हैं। फिर प्राण भी स्थिर हो जाता है। जीवन-क्रिया भी अन्ततः समाप्त हो जाती है।"
आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में
वैज्ञानिकों की धरणा में हृदय की धड़कन बंद हो जाना, सांसों का रुक जाना, शारीरिक उष्णता का समाप्त होना ही मृत्यु है। कोशिकाओं की टूट-फूट होना भी मृत्यु का एक कारण है। किन्तु वर्तमान जीवन-विज्ञान इससे सहमत नहीं। मृत्यु का अर्थ मस्तकीय विद्युत्तरंगों का स्थगित होना कहा है।
हृदय में खून का दौरा बंद हुआ कि मस्तिष्क को रक्त मिलना बंद हो जाता है। परिणामस्वरूप मस्तिष्क की शक्ति नष्ट हो जाती है। मृत्यु हो जाती है। यह ‘क्लीनिकल डेथ' कहलाती हैं।
मृत्यु जीवन का अटूट सत्य है। जीवन की अनिवार्यता है। मृत्यु को समझे बिना जीवन की परिभाषा नहीं समझी जाती। नदी के प्रवाह की तरह जीवन का प्रवाह है। उसके दो तट हैं- एक जन्म, दूसरा मृत्यु। दो जन्मों के बीच मृत्यु अवश्यंभावी है। भागवत में मृत्यु को पूर्ण विस्मृति- 'मृत्युरत्यन्त विस्मृतिः' (११,२२,३८) के रूप में परिभाषित किया है।
जैन दर्शन में मृत्यु का व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध विवरण है। भगवती ४ में मृत्यु के दो प्रकार हैं-बाल मरण, पंडित मरण। बाल मरण के बारह प्रकार हैंवलय, वशात, अन्तःशल्य, तद्भव, गिरिपतन, तरुपतन, जलप्रवेश, अग्निप्रवेश, विषभक्षण, शास्त्रावपाटन, वैहायस, गृद्धपृष्ठ।
समवायांग में मरण के १७ प्रकारों का उल्लेख है-अविचिमरण, अविधिमरण, आत्यन्तिकमरण, वलयमरण, वशार्तमरण, अंतःशल्यमरण, .१५८ -
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन