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ऋतु परिवर्तन से फिर नये पल्लव प्रस्फुटित होते हैं। किन्तु बाह्य अवस्थाओं की संपूर्ण कालावधि में भी वृक्ष का आभ्यन्तर रूप सतत् वही रहता है। इस प्रकार आत्मा की विविध दशाओं में भी आत्मा का अस्तित्व यथार्थ है।
आत्मा अमर है। मृत्यु उसका वध नहीं कर सकती। मृत्यु जब आती है, वर्तमान शरीर पर अपना पंजा फैलाने लगती है। तब आत्मा अपनी अक्षुण्ण शक्ति से नया आवास खोज लेती है।
प्राचीन यूनानी विचारक पाइथोगोरस, सुकरात, प्लेटो, प्लूटार्क, प्लाटीनस आदि के विचारों में भी हमें पुनर्जन्म के सिद्धांत पर आस्था की स्पष्ट झलक मिलती है। अन्य दार्शनिकों, लेखकों, कवियों में स्पिनोजा, रूसो, शैनिंग, इमर्सन, ड्राइवन, वईसवर्थ, शैली और ब्राउनिंग आदि के नाम उल्लेखनीय हैं जो पुनर्जन्म में विश्वास करते थे।
शरीर की नश्वरता एवं प्रोटोप्लाज्मा की अमरता को वैज्ञानिक जगत् में स्वीकृति मिल चुकी है। उनके अनुसार यह शरीर कोशिकाओं द्वारा निर्मित है। प्रत्येक कोशिका में प्रोटोप्लाज्म नामक तरल एवं चिकना पदार्थ होता है। प्रोटोप्लाज्मा द्वारा भीतर की दूषित हवा का निष्कासन और ताजी हवा का भीतर आगमन होता है। प्रोटोप्लाज्म कणों में न्यूक्लीयस नामक अन्य पदार्थ है जो मानव शरीर को जीवन शक्ति प्रदान करता है। न्यूक्लीयस क्षीण होता है तो प्रोटोप्लाज्म के कण भी क्षीण होने लग जाते हैं। मृत्यु के बाद प्रोटोप्लाज्मा शरीर से अलग हो वायुमंडल में प्रविष्ट हो जाता है। वहां से वनस्पति में पहुंचता है। फल-फूल, अनाज आदि के द्वारा भोजन से संयुक्त होकर मनुष्य के शरीर में चला जाता है। फिर जीन में परिवर्तित हो नए शिशु के साथ पुनः जन्म लेता है।
जैन दर्शन के अनुसार इसे सूक्ष्म शरीर की संज्ञा दी जा सकती है। सूक्ष्म शरीरयुक्त आत्मा का ही पुनर्जन्म है। विज्ञान ने अनेक प्रयोगों के पश्चात् यह निर्णय किया है कि मृत्यु होने पर भी कोई ऐसा सूक्ष्म तत्त्व रह जाता है जो इच्छानुसार पुनः किसी शरीर में प्रवेश कर एक नये शरीर का निर्माण करता है।
प्रोटोप्लाज्मा की अवधारणा से आत्मा की अमरता एवं पुनर्जन्म दोनों तथ्य स्पष्ट हो जाते हैं। प्रोटोप्लाज्मा का कण स्मृति पटल पर जाग्रत हो जाता है। तब बच्चे को अपने पूर्वजन्म की घटनाएं याद आने लगती हैं। जैन दर्शन भी कहता है पूर्वजन्म की स्मृति सूक्ष्म शरीर में संचित रहती है, निमित्त पाकर जाग्रत हो जाती है।
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जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन