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जीवकोश का पूर्णक्षय हो जाता है, तब प्राणी की प्राकृतिक मृत्यु कहलाती है। कृत्रिम मृत्यु का अर्थ है-आत्महत्या, सर्पदंश, हत्या, दुर्घटना आदि बाह्य कारणों से होने वाली मृत्यु।
__ जैन दर्शन में मृत्यु का कारण ओज आहार की समाप्ति है। ओज का अर्थ है जीवन धारण करने वाली पौद्गलिक शक्ति। प्राणी जब गर्भ में आता है, उससे पहले क्षण में वीर्य और शुक्र रूप जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह ओज आहार कहलाता है। ओज आहार ही समूचे जीवन का आधार है। शरीर, इन्द्रियों का निर्माण, भाषा का सामर्थ्य, मन की शक्ति का उदय-ये सब क्रमशः ओज आहार के बाद की निष्पत्तियां हैं।
जैन साहित्य में इन्हें पर्याप्तियां कहा जाता है। प्राणी के जीवन की संपूर्ण रचना और क्रियाएं इन्हीं पर निर्भर है। फिर भी इनमें संवेदन नहीं है। इनका संचालन करने वाला दूसरा तत्त्व है जिसे प्राण कहते हैं। प्राण एक जीवनी शक्ति है। प्राण संवेदनशील होता है। अपनी अभिव्यक्ति के लिये पर्याप्तियों के सहयोग की अपेक्षा रखता है। पर्याप्ति और प्राण में कार्य-कारण सम्बन्ध है। पर्याप्ति कारण है। प्राण कार्य है। प्राण दश हैं।
ओज आहार और आयुष्य प्राण का समाप्त होना ही प्राणों की मृत्यु है। जब तक ये समाप्त नहीं होते वहां तक फेफड़े, हृदय या मस्तिष्क अपना काम बंद भी कर दे, फिर भी प्राणी जीवित रह सकता है। अड़तालीस घंटे तक श्वास और हृदय की गति बंद रहकर भी मानव जिंदे पाये गये हैं। केवल श्वासोच्छ्रास का रुकना नहीं, मृत्यु है ओज आहार की समाप्ति।
मृत्यु विश्वव्यापी रहस्य है। मृत्यु जीवन का अंत नहीं, एक पड़ाव है। पटाक्षेप है। आत्मा का रूपान्तरण है। मृत्यु का रहस्य मानव के लिये सबसे बड़ी चुनौती है। विज्ञान भी इस रहस्य को उद्घाटित नहीं कर सकता। यह चिरंतन सत्य है।
लिंग शरीर चैतन्य का अधिष्ठान है। पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, पांच प्राण, मन, बुद्धि इन तत्त्वों से युक्त जीव पुनर्जन्म के लिये प्रस्थान करता है। शरीर का ग्रहण, जन्म और शरीर का विसर्जन मृत्यु है। प्राणों का संयोग जन्म, वियोग मृत्यु है।
प्रत्येक धर्म-दर्शन में मृत्यु सम्बन्धी अनेक कल्पनाएं हैं। मृत्यु के बाद भी जीवन समाप्त नहीं हो जाता। लाइफ आफ्टर लाइफ (Life after life)° में .१६००
- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन