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दार्शनिक स्थापनाओं का युग नहीं है। यह वैज्ञानिक युग है। प्रयोग और परीक्षण का युग है। उसी सिद्धांत को युग की स्वीकृति प्राप्त होती है, जो प्रायोगिक हो ।
हजारों शताब्दियों तक पुनर्जन्म और पूर्वजन्म का जो सिद्धांत मात्र मान्यता या दार्शनिक चर्चा का विषय रहा था, बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से वह भी प्रयोग और परीक्षण की अणु भट्टी में तपाया जा रहा है। व्यक्ति, चित्र, स्थान, वस्तु आदि के दर्शन या स्पर्शन भी पूर्वजन्म घटनाओं की स्मृति में निमित्त बनते हैं ।
निष्कर्ष - परामनोविज्ञान मात्र मानवीय पुनर्जन्म के ही कुछ साक्ष्य उपलब्ध कर सका है। पुनर्जन्म के सिद्धान्त की व्याख्या की है किन्तु प्रयोगशाला के स्तर पर अभी अवधारणा मात्र सिद्धांत के रूप में स्थापित नहीं हो पाई है। ऐन्द्रिय जगत की व्याख्या के लिये विज्ञान सर्वोपरि है, किन्तु अनुभूतियों की अतीन्द्रिय क्षमता के बोध में विज्ञान मानदण्ड नहीं हो सकता । मृत्यु: एक मीमांसा
जीवन का प्रारंभ जन्म से होता है । अन्त मृत्यु है । कर्मावृत चेतना को संसार की नाना अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। जन्म और मृत्यु का चक्र मुक्तिपर्यन्त चलता है। जन्म के साथ मृत्यु की मीमांसा कर लेना भी आवश्यक है।
मृत्यु आखिर है क्या ? मृत्यु क्यों होती है ? उसके कारण क्या हैं ? मृत्यु के बाद क्या घटित होता है ? इनका समाधान भिन्न-भिन्न विचारधाराओं में मिलता है। सुकरात ने पुनर्जन्म और मृत्यु का विषय कारागार में अपने प्रिय मित्र "सिविस" को प्रमाणों से बताया था कि हमारी आत्मा मरने के बाद अवश्य दूसरे लोक में जाती है। मनुष्य ही नहीं, जितनी उत्पन्नधर्मा वस्तुएं हैं उनका विरोध पक्ष भी अवश्य है ।
जो वस्तुएं बड़ी होती हैं पूर्वावस्था में वे छोटी अवश्य रही हैं। धूप है तो छाया भी है। इसी प्रकार आश्लेष- विश्लेष, गरमी - सर्दी, निद्रा - जागृति । विरोधी धर्म के अस्वीकार से पक्ष सिद्धि संभव नहीं है। उसी प्रकार मृत्यु का जन्म विपक्षी है। जन्म का विपक्ष मृत्यु ।
महर्षि रमण ने गृह त्याग के पहले मृत्यु के स्वरूप का प्रत्यक्ष अनुभव किया। एक दिन वे चाचा के घर की छत पर थे। उन्हें लगा, मृत्यु आ रही है पर पुनर्जन्म : अवधारणा और आधार
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