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योग वाशिष्ठ के अनुसार रेचक प्राणायाम का अभ्यास पुष्ट कर मुख द्वारा ऊपर बारह-बारह अंगुल तक के प्रदेश में शरीर के भीतर प्राण को स्थिर रखने की शक्ति जिसे प्राप्त हो, वही योगी अन्य शरीर पर अधिकार कर सकता है।
शौनक ऋषि के अभिमत से परकाय प्रवेश के लिये इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की साधना जरूरी है। 'व्रजोली मुद्रा' से भी परकाय प्रवेश संभव है।
पातंजल योगशास्त्र में आकाश मार्ग से गमन, एक ही समय में अनेक शरीर धारण, परशरीर में प्रवेश आदि योग विभूतियों का उल्लेख है।
अन्नमय कोष से प्राणमय कोष के उद्गमन (Projection) की क्रिया द्वारा ही परकाय प्रवेश की सिद्धि होती है। चित्तवृत्तियों के निरोध बिना उद्गमन संभव नहीं है। परकाय प्रवेश का सिद्धांत भी पुनर्जन्म की सिद्धि का पुष्ट प्रमाण है।
यह आस्तिकों के मस्तिष्क का आश्चर्यजनक आविष्कार है। पुनर्जन्म माने बिना विश्व-वैचित्र्य का समाधान संभव नहीं है। दार्शनिकों ने कर्म-सिद्धांत के अनुसंधान से जीवन में अनके संभावनाओं का उद्घाटन किया है। हाईरोक्लीज ने कहा
"पुनर्जन्म का सिद्धांत स्वीकार किये बिना ईश्वर के विधान को न्यायोचित कहना उचित नहीं है। हमारे भाग्य के निर्माण में हमारा कोई हाथ नहीं है। सब-कुछ नियति के हाथ में है तो भलाई-बुराई की सभी संहिताएं निरर्थक हैं।" कर्मवाद विषमताओं की न्याय पुरस्सर व्याख्या ही नहीं करता बल्कि हमारे विकास का रास्ता भी खुला करता है।
पुनर्जन्म आस्तिक दर्शन का आधार है। इसका सम्बन्ध आत्मा की सत्ता और कर्म-विपाक से है। यह सिद्धांत जैन दर्शन की काया में प्राणवत् व्याप्त है।
प्रत्येक कर्म के लिये कर्ता, साधन और विषय की अपेक्षा रहती है। साधन हो कर्ता न हो तो कर्म की सिद्धि नहीं होती। मनुष्य यंत्र नहीं। उसमें हेयोपादेय का विवेक है। यह कार्य करना चाहिये या नहीं, यह विवेक देने वाला कौन? मन को प्रेरित कौन करता है ? सुख-दुःख की अनुभूति कौन करता है ? अनात्मवादियों के पास इनका कोई उत्तर नहीं। यह सब कर्म का वैचित्र्य है।
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जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन