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भगवती३५ के आधार पर ही प्राणी का गर्भकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट बारह वर्ष का माना है । काय भवस्थ का कालमान ज. अन्तर्मुहूर्त उ. चौबीस वर्ष है। वृत्तिकार ने स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया - एक जीव गर्भ में बारह वर्ष रह सकता है। बारह वर्ष की अवधि पूरी होते ही गर्भ में मृत्यु को प्राप्त हो गया। पुनः उसी शरीर में उत्पन्न हो और बारह वर्ष रह सकता है। इस प्रकार चौबीस वर्ष की उत्कृष्ट स्थिति है।
तिर्यञ्च शरीर में भी 'पोट्ट परिहार' स्वीकार किया है । तिर्यञ्चनी ३६ की गर्भस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट आठ वर्ष की है।
निशीथ चूर्णि, भाष्य आदि में आश्चर्यकारी विवेचन है कि श्रमण के अवसान होने पर उस देह का अंगुष्ठ आदि का छेदन कर देते हैं, ताकि कोई अन्य व्यंतर देव प्रभृति उस शरीर पर आधिपत्य न कर ले। मृत शरीर का अधिग्रहण कर पूर्व जन्म की स्मृति बनाये रखना, पूर्व जन्म सम्बन्धी विलक्षण घटना है।
परकाय प्रवेश की विधि
परकाय प्रवेश एक विशिष्ट यौगिक क्रिया है । जब कोई योगी अनुभव करता है कि यह मेरा शरीर साधना की कठिनता सहने में सक्षम नहीं है और वह उच्च साधना करने का कामी है । वह किसी सक्षम, बलिष्ठ, पराक्रमी और सुन्दर मृत शरीर की प्रतीक्षा -रत रहता है। योग मिलने पर अपने प्राणों को मस्तिष्क (सहस्रार चक्र) में चढ़ा देता है । फिर अपने समस्त संस्कार, स्वभाव और गुणों के साथ दूसरे शरीर में चला जाता है । उद्देश्य की पूर्ति होने पर पुनः अपने पूर्व शरीर में लौट आता है। जब तक नहीं लौटता पूर्व शरीर को कहीं सुरक्षित करवा देता है ।
आद्य शंकराचार्य के सम्बन्ध में प्रसिद्ध घटना है। जब वे पं. मण्डनमिश्र की पत्नी भारती से परास्त हो गये तब वे अवकाश मांग कर तत्काल मृत राजा अमरूक के शरीर में सूक्ष्म शरीर सहित प्रविष्ट हुए । अभ्यास कर पुनः सुरक्षित पूर्व शरीर को प्राप्त किया । (स्वामी अपूर्वानन्द ने 'आचार्य शंकर' नामक पुस्तक के ११५ पृष्ठ पर उल्लेख किया है ।)
परकाय प्रवेश स्वतः एक विज्ञान है। इसका प्रयोग वे ही कर सकते हैं जो अपने सूक्ष्म शरीर को इच्छानुसार किसी दूसरे शरीर में प्रवेश दे सकते हैं।
पुनर्जन्म : अवधारणा और आधार
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