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जैन दर्शन का मन्तव्य अलग है। उसमें किसी न्यायाधीश या नियन्ता की आवश्यकता नहीं। कर्म फल में जीव की अपनी निजी भूमिका ही प्रमुख रूप से उत्तरदायी है।
जैन दर्शन कर्मफल नियन्ता ईश्वर का विरोध ही नहीं करता बल्कि इसके सम्बन्ध में पुष्ट एवं प्रामाणिक तर्क भी प्रस्तुत करता है कि यदि ईश्वर नियन्ता है तो व्यक्ति का स्वतंत्र कर्तृत्व कुण्ठित हो जाता है। कर्मवाद इस मान्यता का निरसन है।
क्षणिकवाद के आधार पर प्रत्येक वस्तु क्षण-क्षण में परिवर्तनशील है। परिवर्तनशीलता के कारण कर्म विपाक की कोई निश्चित कालावधि नहीं बन पाती। अतः क्षणिकवाद का समाधान कर्म सिद्धांत से हो सकता है।
तीसरा कारण है आत्मा और शरीर की अभिन्नता। शरीर के साथ आत्मा का भी नाश हो जाता है। भौतिकवादियों की इस धारणा का उत्तर है- कर्मवाद । यदि आत्मा को क्षणिक माना जाये तो कर्म विपाक की किसी तरह उपपत्ति नहीं हो सकती। जब कर्म का विपाक ही नहीं तो अस्तित्व कहां टिकेगा? जैन दर्शन ने कर्म सिद्धांत के साथ आत्मा की अमरता का भी प्रतिपादन किया है।
इस प्रकार कर्म सिद्धांत का उद्भव तत्कालीन दार्शनिक अवधारणाओं की संगतियों के परिमार्जन एवं कर्मफल व्यवस्था को सुसंगत बनाने हेतु हुआ है। यह यथार्थ की अभिव्यक्ति है, अतिशयोक्ति नहीं। जैन कर्म सिद्धांत और उसका विकास
जैन कर्म सिद्धांत का विकास कैसे हुआ ? उसे समझने के लिये कालक्रम का वर्गीकरण और विभाजन करने से आसान हो जायेगा। १. कर्म सिद्धांत का प्रारंभिक काल या उद्भव काल ई. पू. छठी शताब्दी से
ई.पू. तीसरी शताब्दी है। २. जैन कर्म सिद्धांत का व्यवस्थापन काल ई.पू. दूसरी सदी से ईसा की
तीसरी सदी। ३. जैन कर्म सिद्धांत का विकास काल ईसा की चौथी शताब्दी से ईसा की
तीसरी शताब्दी।
जैन कर्म सिद्धांत का आदि काल ई. पू. छठी शताब्दी से ईसा की तीसरी शताब्दी तक माना जाता है। इसका प्रमाण साहित्यिक दृष्टि से तीन ग्रन्थों में देखा जा सकता है।
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- जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन