________________
आचारांग, सूत्रकृतांग और ऋषिभाषित । भाषा, विषयवस्तु और अन्य सामग्री की दृष्टि से तीनों ई. पू. तीसरी शताब्दी की रचनाएं हैं। इनमें भी आचारांग और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध अति प्राचीन हैं। इन ग्रन्थों में भी जैन कर्म सिद्धान्त के केवल मूल बीज ही उपलब्ध होते हैं, सुव्यवस्थित विवेचन नहीं ।
जैनागम साहित्य में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध को महावीर वाणी का प्रतिनिधित्व करने वाला विद्वानों ने मान्य किया है। कालक्रम की दृष्टि से आचारांग के बाद सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध को स्थान मिला। उसमें बंधन को जानने और तोड़ने की बात कही है।
इस काल की रचनाओं में तीसरा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है - ऋषिभाषित । ऋषिभाषित के दूसरे अध्याय में लिखा है- जीव संसार में कर्म का अनुगामी होता है।" कर्म रूपी बीजों से मोहांकुर और मोहांकुर से पुनः कर्मबीज उत्पन्न होते हैं । ६९
पच्चीसवें अध्याय में, पापकर्म ही गर्भावास यानी पुनर्जन्म का कारण है। इकतीसवें अध्याय में, महावीर से पूर्व तीर्थंकर पार्श्व की मान्यताओं का उल्लेख है ।
तीसरी शताब्दी के प्रमुख ग्रन्थों में उत्तराध्ययन, स्थानांग, समवायांग, भगवती के कुछ अंश और प्रज्ञापना, तत्त्वार्थ सूत्र आदि की गणना है। इनका पारायण करने पर कर्म की चैतसिक और भौतिक- दोनों पक्षों की समस्त अवधारणाएं स्पष्ट हो जाती हैं। कर्म की मूल और उत्तर सभी प्रकृतियों का विस्तृत चित्रण भी उपलब्ध है । ७९
इसके बाद कालखण्ड के इस अध्याय से आगे बढ़ते हैं तो परवर्ती काल में जैनाचार्यों का कर्म साहित्य के विकास में उल्लेखनीय योगदान है। उन्होंने मूलभूत ग्रन्थों पर टीकाएं लिखी हैं। जैन शासन की महान् सेवा की है किन्तु उन टीकाओं में कोई नई अवधारणाएं आई हों, ऐसा नहीं लगता ।
आधुनिक काल के विद्वानों में आचार्य महाप्रज्ञ, पं. सुखलाल संघवी, डॉ. सागरमल जैन, पं. दलसुख मालवणिया आदि ने कर्म सिद्धांत को आधुनिक . शैली में, समकालीन संदर्भों में प्रस्तुत किया है। आचार्य महाप्रज्ञ ने कर्मवाद जैसे जटिल और गहन विषय को विज्ञान, मनोविज्ञान, शरीरशास्त्र आदि के साथ संपृक्त कर जैन दर्शन को अमूल्य अवदान दिया है।
कर्मवाद; उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
१२५०