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किन्तु कर्म-सिद्धांत का गहरा अध्ययन करने के बाद समाधान स्वतः मिल जाता है। कर्म भी निरंकुश सत्ता नहीं है। उस पर भी अंकुश है।७३ कृत कर्मों का भोग अवश्यंभावी है। यह सामान्य नियम है। इसमें कुछ अपवाद भी हैं। परिवर्तन भी किया जा सकता है।
कर्मों की उदीरणा, उत्क्रमण, अपक्रमण तथा संक्रमण संभव है। कर्मों की काल मर्यादा, तीव्रता को बढ़ाया-घटाया भी जा सकता है। उदय में आ रहे कर्मों के फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिये अक्षम भी किया जा सकता है। यह उपशम अवस्था है।
संक्रमण का सिद्धांत जीन को बदलने का सिद्धांत है। मुख्य बात यह है, कर्मों का विपाक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार होता है। विपाक भी निमित्त आश्रित है। निष्कर्ष की भाषा में कह सकते हैं कि व्यक्तित्व-निर्माण में केवल कर्म ही नहीं उसके साथ परिस्थिति, आनुवंशिकता, पर्यावरण, वातावरण, भौगोलिकता आदि सबका प्रभाव होता है।
प्रत्येक घटना कर्म से ही घटित नहीं होती।७४ यदि हम कर्म या नियति के अधीन हैं तो परिवर्तन में विवश बन जायेंगे। जैसे कर्म है तदनुरूप ही कार्य करेंगे। पुरुषार्थ की अपेक्षा नहीं रहेगी।
कर्म के साथ परिस्थितियां भी निमित्त हैं। शक्ल-सूरत में नामकर्म का योग है किन्तु देश-काल का प्रभाव भी मनुष्य के रंग-रूप पर देखा जाता है। अफ्रीका के लोग कृष्णावर्णी होते हैं। यूरोप में रंग सफेद है। शीत और उष्ण प्रदेश का भी प्रभाव है। भारत में भी यह भिन्नता प्रत्यक्ष है। रासायनिक परिवर्तन और जीन्स का भी असर देखते हैं।
आयुष्य कर्म जितना है व्यक्ति या प्राणी उतने समय तक जीवित रहता है। आम धारणा है। इसमें भी अपवाद है। आयुष्य के दो प्रकार हैं- अपवर्तनीय, अनपवर्तनीय। बाह्य निमित्त, जहर, पराघात, सर्पदंश, संक्लेश आदि से आयुष्य कम हो जाता है। इसी प्रकार गुणसूत्र और शक्ल-सूरत में परिवर्तन हो जाये तो आश्चर्य नहीं। नाम कर्म के साथ बाह्य परिस्थितियों का भी योग होता है। इससे कर्म-सिद्धांत और विज्ञान में कोई विसंगति प्रतीत नहीं होती। क्योंकि कर्मों का भी तो संक्रमण होता है।
अतः क्लोनिंग की प्रक्रिया कर्म-सिद्धांत के लिये चुनौती है, यह धारणा निराधार है। बल्कि यह कहना उचित है कि कर्म-सिद्धांत को समझने की क्लोनिंग एक व्यवस्थित प्रक्रिया है। कर्मवाद; उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
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