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परिस्थिति क्या है ? जैन दर्शनानुसार काल (Time) क्षेत्र (Space) पुरुषार्थ (Effort) नियति (Universal law) स्वभाव (Nature) और कर्म, इनका समवाय परिस्थिति है। इसमें केवल कर्म को निमित्त मानना एकांगी दृष्टिकोण है और परिस्थिति को भी एकांत महत्त्व नहीं दिया जाता। जैन दृष्टि अनेकांतवादी है।
__ अनेकांत के आधार पर हर स्थिति का समाधान दिया जाता है। जैन दर्शन कहता है, रोग पैदा होने में केवल देश-काल ही कारण नहीं बल्कि उससे कर्म उत्तेजित होते हैं। वे रोग के जनक हैं। इसी तरह उत्तेजित कर्म पुद्गलों से ही आत्मा में विविध प्रकार के परिवर्तन घटित होते हैं।
परिवर्तन पदार्थ का स्वभाव है। परिस्थिति की पहुंच कर्म-संघटना तक ही है। परिस्थिति से कर्म प्रभावित है। आत्मा कर्मों से। कर्म पर प्रभाव नहीं पड़ता तो आत्मा पर भी प्रभाव नहीं है। जैन कर्मवाद : समन्वयात्मक चिंतन
कोई कालवाद को प्रमुखता देता है, कोई पुरुषार्थ और नियति को। एकान्तवादी एक-एक तत्त्व को विश्व-वैचित्र्य का कारण मानते हैं। यह यथार्थ नहीं है। एकान्तवाद से सत्य की उपलब्धि संभव नहीं है। जैन दर्शन किसी एक को नहीं, पांचों के समवाय को महत्त्व देता है।
उदाहरण के तौर पर यदि सद्-असद् प्रवृत्ति का प्रेरक तत्त्व स्वभाव को ही मानलें तो किसी प्रकार के सुधार की संभावना ही नहीं रहेगी। यदि नियति को मुख्यता दी जाये तो व्यक्ति के कर्तृत्व और पुरुषार्थ का अवमूल्यन हो जाता है। जबकि कर्म और पुरुषार्थ का सापेक्ष महत्त्व है।
आचार्य सिद्धसेन का अभिमत है-काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ परस्पर निरपेक्ष रहकर कार्य-सम्पादन में असमर्थ रह जाते हैं। इनकी समन्विति में कार्य की सफलता है।
कर्मवाद किसका समर्थक : नियतिवाद या पुरुषार्थवाद?
प्रश्न उठता है, क्या कर्म सिद्धांत एकान्त रूप से पुरुषार्थवादी विचारधारा का समर्थक है या नियतिवादी ? व्यक्ति स्वतंत्र रूप से जो-कुछ करता है, यह उसका पुरुषार्थ है। नियति शब्द भाग्य का पर्यायवाची शब्द है। नियतिवाद की सामान्य धारणा यह है कि मनुष्य जो-कुछ करता है वह पहले से नियत है। उसका अतिक्रमण नहीं होता। यहां पुरुषार्थवाद का कोई मूल्य नहीं।
कर्मवाद, उसका स्वरूप और वैज्ञानिकता
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